"अभिमन्यु" मरते नहीं...
"अभिमन्यु" मरते नहीं...
दिन था महाभारत का तेरहवाँ
था कठिन परीक्षा का पाठ
सभी महायोद्धाओं को चित्त कर
अजय "अभिमन्यु" सम्राट
विजय प्राप्त कर "योद्धा" ने
तमाम गुरुकुल को हराया था
उलझ गया रणनीति में वो
दुश्मनों ने चक्रव्यूह आधार बनाया था
माँ की कोख़ में ही सुना उसने
"अर्जुन" के मुख से चक्रव्यूह की गाथा सब
न सुन सका वह चक्रव्यूह तोड़ना
निंद्रा में थी क्योंकि उसकी माता तब
निपुण था धनु विद्या से वह
चक्रव्यूह में गमन से ज्ञात था
वह सुन न सका था
चक्रव्यूह भेदने की शिक्षा
भविष्य से वह अज्ञात था
रक्त तृप्त लड़ता रहा
साधते रहा तीर
आक्रमण सभी ओर से
न बच सका वो "वीर"
रोम रोम तड़पता रहा
हौसला फिर भी "अमीर"
फिर सूतपुत्र कर्ण ने
रथ पर किया वार
रथ पहिया ही बना
"अभिमन्यु" का हथियार
प्रत्येक नैन रो पड़े देख वीर की व्यथा
मूर्खों ने उसकी मृत्यु का बनाया था इरादा
तलवार से छलनी-छलनी कर दिया उसे
न रहा प्रेम न दयाभाव न मर्यादा
मैं अंतिम क्षण तक लड़ूँगा
मैं धैर्य हूँ मेरे पिता का
मैं गौरव हूँ मेरी माते का
मुझें गर्व है मेरे कौशल पर
मैं सर्वोप्रिय हूँ श्रीकृष्ण विधाते का
अंतिम क्षण वह कह गया
सावधान आगामी गर्जन से
तुम सभी अपराधीयों की
मृत्यु अब निश्चित है
मेरे पितृ के बाणों "अर्जुन" से
अभिमन्यु मरते नहीं।