अब यह चुप्पी तोड़ो
अब यह चुप्पी तोड़ो
लक्ष्मण रेखा जो बना दी है संस्कारों की,
अगर मैं चाहूं लांघना उसको,
तो पहना दी जाती परंपराओं की बेड़ी है,
ज़ुबान से आंसू जब शब्द बनकर टपकने लगे नारी के,
तो ---
बदतमीज - बेहया के खिताब से जानी जाती ,
जुबां पर लगा पाबंदी मेरी, व्यथा आंखों से आंसू बन बह जाती है,
चारदीवारी से टकराकर आवाज़ मेरी,
कमजोरी का मेरी एहसास दिलाती है,
फिर अनंत में खोकर, बन जाती मेरी आवाज़ एक चुप्पी हैं,
हालात के आगे हार कर बैठ तो मैं जाती हूं,
शीशे में देख कर जख्म अपने सहम मैं जाती,
यह कैसी चुप्पी जो अत्याचारी को प्रबल बनाती,
शोषित होकर मैं ही अपने व्यक्तित्व को मिटाती,
घुट घुट कर मरना छोड़कर, चुप्पी को तोड़कर,
अपने हौसले बुलंद कर, व्यथा मैं अपनी सबको सुनाती,
हालात से लड़कर, अपने स्वाभिमान को समेट कर,
नारी शक्ति का नया अध्याय बनाती,
समाज के खोखले रिवाज़ो का कर बहिष्कार
अपने उज्जवल भविष्य की फिर से नीव सजाती,
जिसमें ना कोई पीड़ा की चुप्पी हो, ना दर्द की लुका छुपी हो,
अभिव्यक्ति की आज़ादी के साथ प्रेरणा बन नव जीवन की,
मैं संघर्ष पथ पर चलती जाती,
कई हाथ मिलेंगे कई साथी बनेंगे,
चुप्पी के चक्रव्यूह को तोड़कर,
नारी के कई रूप निखरेंगे।