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Satish Chandra

Abstract

4.5  

Satish Chandra

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अब  वो गाँव अपना सा नहीं लगता

अब  वो गाँव अपना सा नहीं लगता

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है लगता जैसे एक सपना 

ना मैं था गांव का ना था गाँव अपना

 अब वो गाँव अपना सा नहीं लगता, 

जिस गाँव से बाहर जाने का सोच कर रोंगटे खड़े हो जाते थे , बीमार पड़ जाते थे दिशासूल पड़ जाता था न जाने कितने बहाना कर जाते थे | जिस गाँव में शहर से आने के लिए मन मचलता था चलती ट्रैन में कूदकर ,रात भर खड़े होकर , टिकट न मिलने पर भी जुरमाना भर कर आना मंजूर होता था,अब वो गाँव अपना सा नहीं लगता

घर भी वही , मिटटी भी वही , खेत खलियान भी वही फिर ना जाने क्यूँ गाँव अपना सा नहीं लगता

बाबा कहते थे शहर जा रहे हो पढ़ लिखकर अपने गाँव को मत भूल जाना , हमें क्या पता था पढ़ कर आने के बाद गाँव हमें ही भूल जायेगा |

 अब वो गाँव अपना सा नहीं लगता.. 

गाँव के जिस बाग़ में हम बिना भोजन दिन बिता देते थे , जिस टुबल पर चोरी से नहाया करते थे , जिस डगर प

र हम साइकिल के पाहिये चलाया करते थे ,  जिस सड़क पर टूटी चप्पल के पहियों वाली  ट्रक दौड़ाते थे , भरी दोपहर में जिस तालाब में केले का पेड़ लेके कूद जाते थे , महुआ का वो पेड़ जहां कंचे हम ही जीता करते थे ,गाँव का वो आइंस्टीन चबूतरा (कुआं) जहां पे वो सारे फैंसले लिये जाते थे कि किस रात , किस खेत मे कब ,कहा ,कैसे खरबूजा तोड़ा जाय, किस आम के पेड़ की रतियाही हो ,किस गन्ने के खेत में ज्यादा खराहा है, किस तालाब मे कितना मछ्ली है किस कुआँ मे कितना कबूतर है वो सब न जाने क्यों अब रुठ से गए है, सबने मुख मोड़ सा लिया है

अब  वो गाँव अपना सा नहीं लगता..

है लगता जैसे एक सपना 

ना मैं था गांव का ना था गाँव अपना।


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