कलमबाज़
कलमबाज़
आखिर कलम की भी अपनी कुछ सीमाएं है
उतार तो दे जेहन की बात कलम से,
लेकिन कलम में क्या ज़ेहन को
इंसाफ दिलाने की ताकत है ?
कैसे कह दूँ कल से अपने ही बहनों की वो बात
जिनकी आँखों में वो दरिंदा चेहरा आज भी ज़िंदा है।
क्या कलम में जेहन को इंसाफ दिलाने की ताकत है ?
कैसे कह दूँ कलम से अपने ही भाइयो की वो बात
जो दर दर भटक रहे ह पेट् पलने के लाले पड़े है।
कैसे कह दूँ उस बूढ़े बाप की वो बात जो पेंशन के लिए
बैंको में २ लम्बी कतारों में खड़ा हूँ।
कैसे कह दूँ देशभक्ति की वो बात,
जो सीमाओं पे हो उसे देश भक्ति नहीं पेट भक्ति ले गयी है।
आखिर कलम की भी अपनी कुछ सीमाएं है
कभी कभी ये कलम भी लिख तो बहुत जाता हो
लेकिन कह नहीं पता वो अपने ज़ेहन की बात l
काश ! कलम की भी अपने माँ बाप होते भाई बहन
होते एक दोस्त होते और उसके सीने में छोटा सा दिल धड़कता,
तो शायद उसे एक माँ की ममता,
एक बाप का बच्चों के जिम्मेदारी
भाई का बहन के लिए डर,
और एक दोस्त का धोखा मिलता
तब शायद एक कलम में
ज़ेहन को इंसाफ दिलाने की ताकत होती।
तब किसी को ये बात नहीं कहनी होती की
आखिर कलम की भी अपनी कुछ सीमाएं है
आखिर कलम की भी अपनी कुछ सीमाएं है।
