अब जुबां खुलने लगी है
अब जुबां खुलने लगी है
घुट-घुट जीती रही मैं,
तड़प-तड़प मरती रही मैं,
खुशियों को बरसों तलक तरसती रही मैं,
पर अब बेड़ियों में जकड़ी हुई मेरी सांसे,
आजादी के लिए मचलने लगी है,
क्या करूं अब जुबां खुलने लगी है|
पुरानी सोच में जकड़ी रही मैं,
हर अत्याचार को तुम्हारे सहती रही मैं,
तुम देवता मैं तुम्हारी दासी,
पर अब यह सोच बदलने लगी है,
क्या करूं अब जुबां खुलने लगी है|
कुछ वजूद नहीं है मेरा,
जो तुम हो तो मैं हूं,
बिन तुम्हारे मैं कुछ भी नहीं हूं,
पर मन के विचारों पर पड़ी हुई,
धूल अब झड़ने लगी है,
क्या करूं अब जुबां खुलने लगी है|
हर दकियानूसी सोच को मान लिया,
संस्कारों के नाम पर जो कहा किया,
पर अब, संस्कारों की मेरी परिभाषा
बदलने लगी है,
क्या करूं अब जुबां खुलने लगी है|
मैं, मैं हूं, उपमा नहीं किसी से मेरी,
सपनों के संसार में एक वजूद मेरा भी है,
विश्वास से भरी हुई मैं,
तकदीर मेरी अब सवंरने लगी है ,
क्या करूं अब जुबां खुलने लगी है|
मैं दुर्गा हूं कमजोर नहीं मैं,
मेरे हाथों में है किस्मत मेरी,
तुम नासमझ हो,
पारस को पत्थर समझ बैठे,
मेरे साथ से दुनिया तुम्हारी संवरने लगी है,
क्या करूं अब जुबां खुलने लगी है|
