आवाज़
आवाज़
खुशियाँ कानों में गुनगुना के जाती है अक्सर
मगर ये ज़िम्मेदारियों का शोर कुछ सुनने नहीं देता।
हवाओं से बांध रखा है आसमां तक एक मांझा
और ये बेवक्त का बिखराव मुझे उड़ने नहीं देता।
जो खामोश हैं कभी ज़ुबान के सच्चे थे बहुत
हालातों का तजुर्बा अब मुझे कुछ कहने नहीं देता।
घर की खूँटियों पे सजाता हूँ रोज़ सुबह का उजाला
शाम दीवारों का अंधेरा, घर को घर रहने नहीं देता।
जिससे भी पूछा जीने का नया तरीका सिखा गया
और मेरा मरने का तरीका ही मुझे मरने नहीं देता।
[ © वास्तुविद आशीष वैराग्यी ]