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Ratna Kaul Bhardwaj

Inspirational

4.4  

Ratna Kaul Bhardwaj

Inspirational

आशा की नई किरण

आशा की नई किरण

2 mins
299


भाग १......

बाज़ार खुल गए 

सीमित समय के लिए

उत्साह फिर जग गया

ज़िन्दगी जीने के लिए


न जाने कितने डूबते तिनकों को

आशा की नई किरण

फिर से दिखाई दे पड़ी

मानो तेज़ चलती आंधी का

किसी अनदेखी शक्ति ने

मोड़ दिया हो रास्ता,

दस्तक दे रही है सुहानी गड़ी


कहीं झाड़ू लग रहे हैं

जलाई जा रही है कहीं अगरबत्ती

सर की टोपी सीधी करके

पढ़ी जा रही है नमाज़ कहीं


हलचल वापिस लौट रही है

शटरों की आवाज़ से

ज़िन्दगी गुनगुनाने लगी है

कहीं लेनदारी हुई है शुरू

तो कहीं देनदारी होने लगी है


मंज़र फिर आशावान है

डूबती साँसों में आ गई जान है

यह ज़िन्दगी का एक पहलू है

दूसरा देखे तो न जाने कितने घर

पशेमान है, परेशान है


बाजारों के वे बंद शटर 

यह संकेत दे रहे हैं

महामारी ने क्या तांडव मचाया

क्या नही लोग सह गये हैं,

कितने ही घरों के आशा के दिए

वक़्त की आंधी ने बुझा दिये


मंज़र कुछ ऐसे भी है

जो दिल को दहला रहे है

आंखों से जिनकी आँसों थमते नही,पर

एक दूसरे के ज़ख्म सहला रहे हैं


भाग 2.....


यह देखो मंज़र, 

एक नन्ही कोमल कली

बिलखते भाई को गोद में लिए

पूछ बैठी माँ से एक सवाल

कई सपने आखों में लिए,

" माँ, हमारी दुकान खोलेगा कौन

कैसे बैठे हो आप सब मौन

दादा-दादी बैठे क्यों गुमसुम हो

बाहर देखकर बस रो देते हो,

क्या सोचते हो रोटी आएगी कहाँ से

क्या इंतज़ाम कर रखा है सरकार ने?

माँ, अब तुम्ही बतलाओ

जीने का हमारा क्या सहारा है

कोरोना निगल गया पिताजी को

बंद पड़ा दुकान हमारा है


रोती हुई, सूनी मांग लिए

एकाएक नारी शक्ति बोली,

"बेटी! सरकार नही,

हमें खुद वक़्त को बदलना होगा

अपने ही बलबूते पर

आत्मनिर्भर हमें होना होगा;

आज मुझे शक्ति का रूप

धारण करना होगा,

तुम सबका मुझे हीअब

पालन पोषण करना होगा


महामारी की आंधी ने

हमसे हमारे प्यारे छीने

कसूर हम इंसानों का है

खून के आँसों हमें ही होंगे पीने


न हमने धरती का सीना

छलनी कर दिया होता

इंसान बने रहते, इंसानियत का जामा

न फेंक दिया होता


पर यकीं रख, धरती तो माँ है

अब बख्स देगी सबको

हम हौसला खोएंगे नहीं

वापस राह दिखाएगी हमको


तो चल बेटी, यह दुकान की चाबी ले

थाम हाथ मेरा, झाडू उठा 

तेरे पिता का अधूरा सपना

हमें मिलकर पूरा करना होगा"


यह सुनकर दो बूढ़ी आंखों से

आँसों टपाटप गिरने लगे

कांपती टाँगों का सहारा लिए

बहू के सर पर हाथ फ़िरने लगे

बोले,"वाह बेटी! तू माता का रूप है, 

चल कंधा थाम मेरा, तुझे बताता हूँ

दुकानदारी का क्या स्वरूप है।

मैं बुड्डा हूँ,तजरुबा है 

जोष अब ज़रा कम है,

पर तेरा जोष, मेरा तजरुबा 

अब हमारा नया कदम है"


एक दूसरे का हाथ थामे

नई राह पर तीनों निकल पड़े

जग उठी नई आशा की किरण

और खुल गए अंतरमन के हौसले......




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