आस का पंछी
आस का पंछी
जिंदगी के साये बन
पंख फैलाए फिरते थे
धराशायी देख जमीं पे
आज खामोशी समेटे हैं...
क्यों नहीं उठते हो तुम
व्याकुल मनवा सोचे है
एक बार देख मेरी तरफ
तेरे इंतजार में ही बैठे हैं...
सन्नाटे की फैली चादर
आसमां से क्यों रुठे है
तुम बिन उड़ना मुझको
आस का पंछी यही सोचें हैं..!!
