आपबीती-जगबीती
आपबीती-जगबीती
कुछ आपबीती तुम कहो
कुछ जगबीती मुझसे सुनो....!
सत्य का संदर्भ देकर
ऊंघ रहा सिमट कर
थकी निशा गहरा रही
निर्विकार निस्तब्धता ओढ़ कर....!
अप्रतिहत क्षण की मुस्कानोंं में
प्रहरी उडगन झर झर झरते
विहंस रही रति अवसाद की
दृष्टि पंथ में मौन सहेजते
सकल भावों की दाह लिए
कुछ आपबीती....!
छनछन कर क्षण बावरे
विकल हैं उन्मुक्त गंतव्य को
विषमताओं की झिंगुर लोरियाँ
गीत सुनाती अनगढ़ मंतव्य को....!
अभागे निमिष में रोमांचित
सहानुभूति के स्वर सजग हुए
कुहासे में भर भर ओस
लोलुप वासना से ओझल हुए....!
नीर की इस ठिठुरन कंपन में
कुछ आपबीती....!
अस्मिता की दारूण स्मृतियों में
क्यों बैठी हो अपूूूर्णता का दीप लिए
वासना के रूप से विलग हुई
क्यों पूर्णता की दुहाई लिए....!
निराकार अभिलाषा का ढोल पीटते
वेदना तेरी अनकही
चेतना मेरी अनसुनी
कुछ आपबीती तुम कहो
कुछ जगबीती मुझसे सुनो....!
