आम ख़ास
आम ख़ास
जितने भी यहाँ पर सारे आम है
बेकरार रहते बनने को खास है
सब कुछ खास के ही पास है
सब चूसते जिसको वो आम है
रसूख वालों के ही यहाँ पर नाम हैं
मुफ़लिसी में जीते सब गुमनाम हैं
हकूक बिकते गुठलियों के दाम हैं
फिर भी सबके लिए वही बदनाम हैं
लालबत्ती का तो अब खत्म रिवाज है
पर रौब का तो वही पुराना लिबास है
गरीब की हर पाई पाई का हिसाब है
अमीरों के खरबों की भी बंद किताब है
किसी की आँख का सैलाब मामूली बात है
किसी आँख का कचरा ही कहीं सैलाब है
किसी की रैन भी रोशन जैसे आफ़ताब है
किसी का दिन ही जैसे अंधेरी कली रात है
कोई हालातों का मारा ही जिंदा एक लाश है
किसी की सीढ़ी ही ऊपर चढ़ने की वो लाश है
कोई शरीफ होकर भी खुश बनने में बदमाश है
तो कोई बदमाशी के झूठे तमगे से बेहद हताश है।
