आखिर क्यूँ
आखिर क्यूँ


आखिल क्यूँ तू आई तबाही का मंजर लेकर,
तेरे आने से पहले यूँ थोड़े सुकून से तो जी रहे थे
कुछ पल साथ बैठ अपनों से बातें किया करते थे
भाई-बहन साथ मिल कुछ पल खेला करते थे
दोस्तों संग थोड़ी मस्ती भी किया करते थे
परायों से रिश्ता बनाने की कोशिश तो किया करते थे
आखिल क्यूँ तू आई तबाही का मंजर लेकर,
तेरे आने से,
अपने ही अपनों साथ रहने में डर रहे
साथ मिल थोड़े पल बात करने में हिचक रहे
पराये की बातें तो छोड़ ही दो,
अपने ही अपनों से यूँ बिछर रहे
अपने ही अपनों के अरमानों का कत्ल कर रहे
आखिल क्यूँ तू आई तबाही का मंजर लेकर,
उनसे पूछो जिसने अपने कुल के चिराग को खोया
उस माँ से पूछो जिसने अपने नवविवाहित बेटी को खोया
खुशहाल जीवन जी रही उस
औरत से पूछो
जिसने अपने सुहाग को खोया
उस परिवार से पूछो जिसने अपने घर के नींव को खोया
आखिल क्यूँ तू आई तबाही का मंजर लेकर,
ऊँच-नीच अमीर-गरीब के बीच खाईयाँ कम थी
जो तेरे आने से और बढ़ गई
इंसानियत थोड़ी तो जिंदा थी,
भूखों को खाना दिया करते थे
जरूरतमंद की मदद किया करते थे
तूने उसे भी छीन लिया सबसे
आखिर क्यूँ तू आई तबाही का मंजर लेकर,
आज बता तू आखिर गलती क्या है,
किसकी सजा मिल रही सबको,
यूँ तड़पा- तड़पा मारने से अच्छा,
तू अपना विकराल रूप धारण कर सब कुछ तबाह कर दे
तेरे आने से पहले माँ की खुश्बू से उनकी आहट समझ लेती थी
अब तेरे वजह से खुद को यूँ जंजीरों से बांध कर रहना पड़ता है
आखिर क्यूँ तू आई तबाही का मंजर लेकर।