आज़ादी
आज़ादी
मैं ‘आज़ादी’ बोल रही हूँ,
राज़ अनोखे खोल रही हूँ।
आज बुढ़ापे में मैं अपने,
मन की बातें बोल रही हूँ।
क्या खोया क्या पाया मैंने,
अपने दिल में तोल रही हूँ।
भारत माता की बेटी मैं,
बड़े जतन से जन्मी थी।
खून बहाया वीरों ने तब,
मैंने आँखें खोलीं थीं।
मुझे देखकर हर्षित होकर,
पुलक उठा था सबका मन।
जो चाहा था, वह पाया है,
यही सोचता था जन-जन।
किंतु नहीं मैं थी ‘मंज़िल’ जो,
पाकर कोई रुक जाता।
ना ही मैं ‘मनमानी’ थी जो,
सबके मन को भा जाती।
ना मैं थी ‘कठपुतली’ केवल,
ताकतवर के हाथों की।
मैं जन्मी थी अपनी माँ की,
सच्ची सेवा करने को।
उसके जन-मन में विकास की,
इच्छा अमर जगाने को।
सबका हो उद्धार ज्ञान से,
इसकी ज्योति जगाने को।
हर बालक जब भारत माँ का,
नहीं रहेगा भूखा-नंगा।
और जीयेगा अपने बल पर,
बिना किसी सहारे के।
तब मेरे घावों पर मन के,
मरहम-सा लग जाएगा।
हाँ, मरहम-सा लग जाएगा।
मुझमें नव जीवन आएगा।