आज मन बालक है ....
आज मन बालक है ....
आज मन बालक है ,
मचल गया है एक और नई कथा सुनने को
दादी की , कौवे की , राजा की , रानी की ,
बहुत हुई यह सब कहानियां परियों की
आज जीवन की सच्चाई सुनने को मचल उठा है ये मन ,
एक और कथा सुनने को
छूने को अम्बर की ऊंचाइयां
चल चला मैं बटोही
होकर प्राणो के प्रति निर्मोही ,
भेदता ये भीषण खड्ड और यह भयकारी भयंकर खाई
अब जो चल चला हूँ दामन साहस और उत्साह का थामे
देख रहे हैं स्तब्ध से खड़े तामस के गलियारों से
मेरे ये बढ़ते कदमो को ऊँचे पग बढ़ते चढ़ते ,
प्रतिकूल इस पवन वेग को जीभ चिढ़ाते
धराशायी करने मेरी नियति के संविधान को
अपनी हवस की लम्बी लोभ से गुंथी चोटी से लिखने वालों को
अपने अक्षरों की स्याही से उनके दर्प को नींव से उखाड़ने ,
बनाने समतल इस ऊबड़ खाबड कानन को
मेरे शब्दों के स्पर्श की गंध पाकर
फिर से जीवन का रास पाकर झूम उठेंगी
ये रूपवती रंगीन तितलियाँ पर अभी,
मायापुरी के पाश को मिराज समझने की भूल कर बैठा मैं ,
<p>इस माया राज्य की परिपाटी के चक्रव्यूह में उलझा मैं अभिमन्यू ,
थक कर चूर , चारों ओर से घिरा हुआ हूँ
इस अभिमानी गिरी के आगे निर्वस्त्र खड़ा मैं निहत्था,
मुझे वापस लौटाने की ज़िद्द मैं अड़ा ये अपने ही घमंड के नशे मैं चूर
अब शून्य से घिरा इस अंधकारमय रजनी के आगोश में थक गया हूँ ,
छूट रहा अब साहस भी ,उत्साह भी और ,
उम्मीद के संबल की भी श्वास रुद्ध कर रही ये बर्फीली आंधियां,
मेरे जिस्म को भेदती ये शीत पवन की लहरें ,
इनके आगे घुटने टेकने की कगार पर खड़ा मैं
अब जो चला आया हूँ सुदूर
तेरी वो विश्वास से भरी निश्छल झलक को कहीं इस क्षितिज मैं खोजता
कुछ करने की ललक को फिर से चिंगारी देने वास्ते फिर से उठ खड़ा हुआ हूँ मैं
और अब ,
फिर तेरे यकीन पर ऐतबार कर
फिर सीने मैं नवरस का ज्वालामुखी लिए
फिर बढ़ चला हूँ मैं
उत्साह और साहस का दामन थामे
उस अहंकारी का अभिमान तोड़ने .
छूने को अम्बर की ऊंचाइयां
फिर एक बार बढ़ चला हूँ मैं।