आज की नारी
आज की नारी
एक छन्द मुक्त कविता
हाँ मैं सीता नहीं हूँ
जो पति को श्रेय दिलाने,
इन्तजार करती रहूँगी।
है अगर आग मुझमें तो,
खुद ही रावण राख करूँगी।
ले कोई परीक्षा जो मेरी,
मुझे वो स्वीकार नहीं होगा।
मजबूर करे जो आग में जाने-
मुझे वो खुद आग में होगा।
हाँ मैं रुकमणी नहीं
जो पति को बाँट लूँ,
अन्य गोपी और नार में।
जो सिर्फ मेरा न हो सके-
न ड़ालूँ उसके गले हार मैं।
मेरे पति के संग कोई,
और मुझे स्वीकार नहीं।
ये छ्ल है पत्नि के संग,
प्रेम का आधार नहीं।
हाँ मैं द्रोपती नहीं।
जो बँट जाऊँ चुपचाप,
किसी की आज्ञा मानके।
जो बाँटे मुझे छोडूँ उसे,
अपना भला जानके।
मुझे दांव पर लगा दे,
मैं पति का कारोबार नहीं।
कैसे करेगा कोई सौदा मेरा,
मैं औरत हूँ व्यापार नहीं।
हाँ मैं आज की नारी हूँ
जो सहे न वेदना कोई,
खुद राक्षस संहार करे।
जो बंटा हो पति कहीं ,
न उसे स्वीकार करे।
जो मुझे अपना सामान कहे,
ऐसे हर व्यक्ति का मुँह तोड दूँ।
जो दांव पर लगाए मुझे पति,
ऐसे पति को उसी पल छोड़ दूँ।