आज का सच
आज का सच
खून ठंडा हो चुका है इस वक्त पीढ़ियों का,
इंसानियत को मिट्टी में गाड़ चुके हैं।
नफ़रती बोलियों से फैलाते हैं ज़हर नेता,
भाईचारे का पौधा उखाड़ चुके हैं।
आकर बहकावे में हम बातों में उनके,
अपने पड़ोसी से भी रिश्ता बिगाड़ चुके हैं।
पाप बरसा जब धरा पर लावा बनकर,
वो अपनी गलती का धूल झाड़ चुके हैं।
करो 'अंकित' कागज पर परेशानियाँ अपनी,
वो तो सिर्फ रैलियों में दहाड़ चुके हैं।
