आईना
आईना
आईना तुम मुझको,
भरमा नही सकते,
जानती हूँ ,
भ्रम हो तुम ,
प्रतिबिम्ब हो
बाहरी आवरण पर
तुम्हारे, कैसे कर लूँ
मैं यकीं?
जब नहीं पहुँच सकते तुम
किसी के हृदय तक
न किसी के सुंदरता तक
बस मोहित होते हो तुम
तुम्हारे समक्ष आये चेहरे पर
अब सुन लो बात मेरी
समझ लो इसको चेतावनी
तुम मेरी
नहीं होती हूँ
मैं भ्रमित
क्योंकि अब पहचान लेती हूँ
उस कुरूपता को
जो सुंदरता की आड़ में
रहता है
उस लालच को
जो इंसान के भीतर पनपता है
नहीं! अब बस!
बहुत हुआ
तुम आईना हो
पर सुनो
खुद अपने प्रतिबिम्ब
को देखने की आदत डाल लो
करो पहचान
अपने सच से.....