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राहुल द्विवेदी 'स्मित'

Abstract

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राहुल द्विवेदी 'स्मित'

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आईना इक बार देखो तुम जरा !

आईना इक बार देखो तुम जरा !

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चाँद का दीदार कर लो तुम जरा ।

आइना इक बार देखो तुम जरा ।।


शोखियाँ खोने न पाएँ हुस्न की ;

इक कली होकर जो चटको तुम जरा...।


बस्तियाँ सदमे में हैं कल रात से ;

मुस्कुराकर रौशनी दो तुम जरा ।


जिंदगी की ये ग़ज़ल बन जायेगी ;

राब्ता मिसरों में दे दो तुम जरा ।


चाँद गर छत पर दिखे मुश्किल न हो ;

रात छत पर यूँ न टहलो तुम जरा ।



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