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Fahima Farooqui

Abstract

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Fahima Farooqui

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आहिस्ता आहिस्ता

आहिस्ता आहिस्ता

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आहिस्ता आहिस्ता बिछड़ रहे हैं।

रिश्तों के धागे उधड़ रहे हैं।


ना जाने किसकी लगी है नज़र,

बने हुए खेल जो बिगड़ रहे हैं।


नफ़रत की उगने लगी फ़सल,

मोहब्बत के जंगल उजड़ रहे हैं।


क़ब्र की मिट्टी सुखी भी नहीं और,

बच्चे ज़ायदाद को झगड़ रहे हैं।


हैं लब ख़ामोश वक़्त-ए-जुदाई पे,

और आंखों से दरिया उमड़ रहें हैं।


अब खोल भी दो स्कूल हुक्मरानों,

मोबाइल से बच्चे बिगड़ रहे हैं।



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