आधी अधूरी आज़ादी
आधी अधूरी आज़ादी


बोली कलम मेरी
मुझसे सुबह सवेरे
" लिख दे कुछ ऐसा कि
मैं अमर हो जाऊं।
हों शब्द तेरे ऐसे कि
पढ़ने वाले के दिल में
गहरे उतर जाएँ।"
पड़ी सोच में मैं गहरी
कि कैसे मैं कुछ ऐसा
लिख पाऊँ ?
मिली आज़ादी बरसों पहले
पर बेड़ियों में हम
आज भी हैं जकड़े।
कैसे मैं शब्दों से
वो बेड़ियां तुड़वा पाऊँ ?
कामसूत्र की धरती पर
होते हैं कत्ल-ए-आम
"लव जिहाद" के नाम पर।
पूजी जाती हैं जहाँ
दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती
वहीं दम तोड़ देतीं हैं
आज भी अनगिनत
असंख्य अजन्मी देवियाँ।
कैसे मैं इस गुनाह को
न्यायोचित ठहरा
ऊँ ?
कैसे मैं खुद को
खुद की ही नज़रों में
गिरने से बचा पाऊँ ?
दम तोड़ रहा बचपन जहाँ
अक्सर " छोटू" बनकर।
उसके झूठन उठाते हाथों से
मिट रही लकीरें नसीबों की।
कैसे मैं सजाऊँ
उनकी सूनी अखियों में
तस्वीर सुहाने कल की ?
कैसी है ये आज़ादी
जो मिली आधी अधूरी सी।
जब तक न हो
हर चेहरे पे चमक,
दिखती न हो सबको
एक आशा की किरण
कैसे हो तब तक
आज़ादी पूरी सी ?
सुन बात मेरी पूरी
कलम मेरी मुस्कायी
और बोली,
"मिली है आज़ादी
सिर्फ अंग्रेज़ों से हमें।
अपनों से तो बाकी है अभी
अपने हक़ की लड़ाई।