अगर तुम न होते
अगर तुम न होते
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आज वह बेचैनी से गली में इधर से उधर घूम रहा था। लेकिन अक्सर अपनी बालकॉनी में बैठी नजर आने वाली परिधि उसको कहीं भी नजर नहीं आई। उसकी बेचैनी न जाने क्यों बढ़ती ही जा रही थी।
दो महीने पहले ही तो वह परिधि के घर के सामने वाले घर में शिफ्ट हुआ था। मकान मालिक बाहर कहीं दूसरे शहर में रहते हैं।
एक दिन परिधि के पापा बालकॉनी में आकर जोर से बोल रहे थे कि कितनी देर हो गई उसको यहां बैठकर कविताएं लिखते हुए अब उसको भीतर जाना चाहिए उसी दिन उसको पता चला कि उसका नाम परिधि है।
मासूम सा चेहरा और उस पर चोटी से निकले कुछ वालों की लटें और पंखुडी से होठों पर फूलों सी मुस्कराहट और आँखें बोलती हुई बड़ी बड़ी सैकड़ों बातें करती हुई किसी में भी प्रेम का एहसास जगा दें।
परिधि और उसके रिश्ते पर लोग अंगुलियाँ न उठाएं इस लिए वह अपनी बालकॉनी में नहीं बैठता था बस बहाने से गली में इधर से उधर दो तीन चक्कर लगा लेता था देखकर दिल क़ो तसल्ली हो जाती थी और जिस दिन वह दिखाई नहीं देती उसकी बेचैनी हद से ज्यादा बढ़ जाती।
नौकरी लगने के बाद उसके रिश्तों की मानो बाढ़ सी आ गई थी एक से एक सुन्दर और दहेज वाली लड़कियों के रिश्ते आ रहे थे मगर उस पर तो।
अचानक घर के बाहर एक एंबुलेंस आकर रुकी। वह चौंक गया फटाफट सीढियां उतरा और एंबुलेंस के पास जा खड़ा हुआ-
"क्या हुआ भैया ?"उसने जिज्ञासावस पूछ ही लिया
"कुछ नहीं। l"उस आदमी ने लापरवाही से जवाब दिया और भीतर चला गया
उसकी बेचैनी और बढ़ गई यूँ इस तरह किसी के घर में घुसना भी अच्छा नहीं था। उसका मन नहीं माना और भीतर चला ही गया
यह क्या देखकर वह स्तब्ध रह गया परिधि के पापा उसको पकड़कर ला रहे थे। तो क्या परिधि ।
"नहीं नहीं यह नहीं हो सकता l" उसने खुद क़ो समझाया
"क्या हुआ इनको ?" उसने परिधि के पापा से पूछा
"आप वही सामने।"
"जी जी मेरा नाम मोहित है, मोहित सिंह l"
"हाँ बेटा। जब परिधि सिक्स्थ क्लास में थी अचानक इसको तेज बुखार चढ़ा और उसकी दोनों आँखों की रोशनी चली गई, आज इसको ऑपरेशन के लिए हॉस्पिटल ले जा रहे हैं, शायद मेरी बेटी की आँखों में फिर से रोशनी आ जाए और वह इस खूबसूरत दुनियाँ क़ो देख सके l"परिधि के पापा ने भर्राए गले से कहा, परिधि अभी भी मुस्करा रही थी थोड़ी देर बाद एंबुलेंस चली गई
मोहित सन्न सा खड़ा एंबुलेंस के पीछे उड़ती धूल क़ो देखता रह गया।
परिधि के घर में वह उसके पापा और एक बड़ा भाई थी जोकि किसी दूसरे शहर में अपने परिवार के साथ सैटल था।
परिधि की मम्मी की आठ साल पहले ही कैंसर से मौत हो चुकी थी, वही परिधि की देखभाल किया करती थीं उनके गुजर जाने के बाद परिधि बिल्कुल टूट सी गई कभी इसीलिए उसके पापा अमरसिंह ने भी सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्ति ले ली थी
परिधि की आँखों की रौशनी उस समय गई थी जब वह पांचवी कक्षा में पढ़ती थी इसीलिए उसे लिखने में परेशानी नहीं होती थी, जो भी भाव उसके मन में आता था कागज पर उकेर देती थी। कविताएं लिखकर उसको एक अनोखी संतुष्टि महसूस होती थी। कई बार तो उसके पापा उसके मन की उथल पुथल क़ो कविताओं से ही पहचान लेते थे क्योंकि एक डायरी में उनको नोट करना उन्ही का काम था
दो दिनों तक परिधि के घर के बाहर ताला ही लगा रहा, इधर मोहित भी बहुत परेशान था, परिधि का मासूम सा चेहरा हर पल उसकी आँखों के आगे झूमता रहता था। एक छवि बहुत प्यारी सी उसकी आँखों में कैद हो गई थी एक सुखद न बयाँ किया जाने वाला इतना हसीन एहसास था जिसे महसूस कर वह प्रफुल्लित हो उठता था
फिर डर भी जाता था कि परिधि क़ो तो इस सबके बारे में कुछ भी पता तक नहीं कि वह कितना चाहता है उसे
और घर पर अगर किसी अंधी लड़की से विवाह के बारे में बात करेगा तो घर वाले ही नहीं जमाना भी उसको पागल ही समझेगा कि अच्छा खासा स्वस्थ नौजवान कैसा पागल हो गया है
वह बड़ी असमंजस में था, अभी घर का ताला बंद कर ऑफिस के लिए निकल ही रहा था कि परिधि के पापा ऑटो से बाहर निकलते हुए दिखाई दिए
वह लपकता हुआ उनके पास पहुंचा और हाथ जोड़कर नमस्कार करते हुए बोला।
"नमस्ते अँकल जी l"
"जी जी नमस्ते ओह सामने रहते हो न l"
"जी अँकल जी l"
"अब परिधि जी कैसी हैं ?"मोहित का यह प्रश्न सुनकर एकाएक परिधि के पापा के चेहरे का रंग उड़ गया
"बेटा मेरी और मेरी फूल सी बेटी की किस्मत ही खराब है डॉक्टर ने हाथ खड़े कर लिए। इस बार वह टूट सी गई उसको तो अपनी अंधता के साथ जीने की आदत सी लग गई थी मगर मैने ही उसको एक बार फिर से डॉक्टर्स क़ो दिखाने के लिए मनाया था l"उन्होने परेशान होते हुए कहा l
"अब कहाँ हैं परिधि जी ?"पीछे गली में उसकी मौसी जी रहती हैं आज उनके पास ही छोड़ आया था l"*कहते हुए बे आगे बढ़ गए
तभी परिधि की बालकॉनी से एक पेपर आकर नीचे गिरा, मोहित ने उसको उठा लिया।
"दूर दूर तक अंधेरे हैं
चिराग ख्वाब में भी जलता नहीं
सब किस्मत के फेरे हैं
दिया बिना हवा के यूँ बुझता नहीं
मैं टूटी हुई कश्ती
दूर दूर तक यहां किनारे नहीं
कोई अब राह मुझे दिखाता नहीं
हवा रुख रूखा सा है
फूल वो हूँ मैं जो खुश्बू देता नहीं"
(परिधि )
पढ़कर मोहित की समझ में आ चुका था कि हर वक्त चेहरे पर मुस्कान सजाने वाली लड़की परिधि अंदर से कितनी टूटी है।
इस बार दशहरे पर बाबूजी का फोन आया कि उसको देखने लड़की वाले आ रहे हैं तो मोहित ने हिम्मत करके बता ही दिया कि उसे कोई लड़की पसंद है यह सुनते ही घर में जैसे भूचाल आ गया हार कर बाबूजी ने पूछ ही लिया कि लड़की कैसी है ?
जब उसने बताया कि लड़की देख नहीं सकती फिर तो सब पर जैसे वज्रपात हो गया सबने उसको मूर्ख और पागल की उपाधि भी दे दी।
लेकिन जब उसने कहा कि वह उस लड़की से बेइंतहा मोहब्बत करता है तो सबने हथियार डाल दिए और कहा चलो ठीक है लड़की वालों से कहो कि बात करने उनके घर जाऐं
"मगर बाबूजी अभी तक तो लड़की क़ो पता भी नहीं कि हमl"
"यह बहुत बढ़िया लड़की क़ो पता भी नहीं और तुम उससे विवाह करना चाहते हो। पागल हो गए हो क्या ?"बाबूजी गुस्से से चिल्लाए, उधर अम्मा का तो रो रोकर बुरा हाल था ;"जिस लड़के क़ो इतने प्यार दुलार से पढ़ाया लिखाया काबिल बनाया आज वही पागलों सी बातें कर रहा है l बिरादरी में कितनी थू थू होगी हमारी l"
खैर एक दिन हिम्मत करके मोहित परिधि के घर गया और बड़ी हिम्मत करके उसके पिता क़ो अपने मन की बात बताई, सुनकर एक पल के लिए तो उनको यकीन ही नहीं हुआ कि उनकी बेटी के लिए इतना अच्छा रिश्ता खुद चलकर घर बैठे आएगा।
"क्या मुझ पर तरस खाकर मुझसे विवाह करना चाहते हो ?"परिधि ने भर्राए गले से कहा।
"नहीं। परिधि जी सच मानिए आप से बहुत। खैर आप पहले मुझे खूब परख लीजिए उसके बाद ही मैं तुमसे विवाह करूंगा l"
"एक साल तक मोहित परिधि के घर आता जाता रहा और उसका ख्याल रखता, परिधि भी मन ही मन उससे मोहब्बत करने लगी और यकीन भी
"क्या तुम मेरा हमेशा ऐसे ही ख्याल रखोगे ?"परिधि ने एक दिन पूछ ही लिया।
"यकीन है मुझ पर ?"
"हाँ खुद से ज्यादा l"इस शब्द ने मोहित क़ो दीवाना बना दिया।
एक सादे से शादी समारोह में दोनों का विवाह हो गया घर वाले खुश नहीं थे मगर परिधि के व्यवहार ने उन सबको भी अपना बना ही लिया।
"हमारा प्यार कैसा है ?" एक दिन परिधि ने पूछा।
"बिल्कुल इस गज़रे की तरह l"
"मगर यह तो मुरझा जाएगा l"
"हमने अपनी प्रेम की बगिया में मुरझाने वाला फूल लगाया ही नहीं l"कहते हुए मोहित ने प्रेम से परिधि क़ो अपने आलिंगन में भर लिया और परिधि ने भी पूर्ण समर्पण कर दिया मन से दिल की गहराइयों से आज भी परिधि कविताएं लिखती है मगर रूमानी।