फर्क

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​''अजी सुनती हो --जानकी एक गिलास पानी तो दो, गला सूखा जा रहा है।" गोकुलदास ने दफ़्तर से आकर सोफे पर बैठते हुए कहा।

​''आती हूँ, आती हूँ. हाँ बेटा बाद में बात करती हूँ, तुम्हारे बाबूजी आ गये है, ठीक है ..खुश रहो ..फोन कर लिया कर ..बात न हो तो बहुत याद आती है तुम्हारी।"कहते हुए जानकी ने फोन काट दिया। 

​''अरे काहे गला फाड़ रहे हो ? घर में और कोई नहीं है क्या ?" वो कहाँ गयी तुम्हारी बहू रानी ?"बतिया रही होंगी मायके बालो से .....यहाँ तो कोई है ही नहीं।"पानी का गिलास गोकुलदास के हाथ में थमाते हुए जानकी चिल्ला रही थी।

​नीचे शोर सुनकर रेखा भागते हुए नीचे आई तो सास -ससुर दोनो अजीब नजरों से उसकी तरफ़ देख रहे थे।

​''काहे --तुमको पता न है का जे बकत तुम्हारे ससुर जी के आने का होत है --और तुम मुबाइल कान पर लगाये रहती हो ?"

​''वो माँ जी मम्मी की तबीयत ठीक नहीं है न --उसी के बारे में पूछ रही थी।" रेखा ने सकपकाते हुए कहा।

​''तो हम का करे ? अब तुम इस घर की बहू बन गयी हो --कोई जिम्मेदारी है कि नहीं तुम्हारी --जाओ इनको चाय बनाकर लाओ।"जानकी ने झल्लाते हुए कहा।

​''जी माँ जीl" कह कर रेखा रसोई में चली गयी।

​''सुनो जरा फ़ोन तो मिलाओ बिटिया का बड़ी चिंता होती है उसकी, जब तक बात न हो जाये दिन में तीन बार चैन न मिलत है।"जानकी ने अपने पति गोकुलदास को मोबाइल थमाते हुए कहा।


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