हासिल
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"चारों तरफ से घेर लो, कोई बच कर भागने न पाए।" पुलिस इंस्पेक्टर की रौबदार आवाज़ से सभी पुलिस वाले उस छोटे से मकान को घेर लेते हैं। दरवाजे पर दस्तक देने के बावजूद जब नहीं खुलता तो तोड़ने के आदेश का पालन करते हैं।
बिल्कुल दड़बेनुमा छोटे-छोटे कमरों में डरे सहमे से छोटे-छोटे बच्चे जो चूड़ी बनाने के कारखाने में मजदूरी को लाये गए थे। एक-एक कर सबको बाहर निकाला जाता है।
"चूड़ी बनाने के कारखाने से पंद्रह बाल मजदूर आजाद कराए गए ... तीन लोग गिरफ्तार।"
दूसरे दिन ...अखबार की ये सुर्खियाँ बनती है और इसका श्रेय एक नामचीन समाज सेवी को दिया जाता है। बाल मजदूरी के उन्मूलन के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार की अनुशंसा भी की जाती है।
आजाद कराए गए बच्चों को पहले थाने ले जाया जाता है। वहाँ उन सबके नाम पते लिख कर उनके अभिभावकों को बुलाया जाता है। तब तक सबको बाल सुधार गृह भेज दिया जाता है।
सोशल मीडिया में लंबी-लंबी बहस होती है। अनेक लेखक साहित्यकार बाल मजदूरी के खिलाफ लेख लिखते हैं। कविता कहानियाँ लिखते हैं और पूरे देश में बाल मजदूरी के उन्मूलन हेतु एक आंदोलन छेड़ने का आव्हान करते हैं।
सरकार द्वारा भी आजाद कराए गए बच्चों के पुनर्वास हेतु लंबे चौड़े वादे किए जाते हैं।
बच्चों के अभिभावक थाने पहुंचते हैं जिनमें अधिकांशतः महिलाएं होती हैं। रोती बिलखती लाचार महिलाएं जब अपने बच्चों से मिलती हैं तो उनकी रुलाई फूट पड़ती है और बाल सुधार गृह एवम पुलिस अधिकारियों से कहती हैं...
"साब ये बाल मजदूर नहीं, हमारे घरों के मुखिया हैं। इन्हीं की बदौलत हमारे चूल्हे जलते हैं और हमारा पेट भरता है। साब हमको भी हमारे बच्चे जान से ज्यादा प्यारे हैं लेकिन पेट की खातिर अपने जिगर के टुकड़ों को इतनी छोटी उम्र में काम करने को भेजना पड़ता है। साब इनको जन्म देने वाले पिता मजदूरी करते करते मर जाते हैं या कमाने के लायक नहीं रहते तो घर का बोझ इन मासूम कंधों पर आ जाता है। मजदूर का बेटा मजदूर ही पैदा होता है साब और मजदूर के रूप में ही मर जाता है लेकिन हमारे हाथों के छाले, छाले नहीं बल्कि वो सच्चाई है जो हर मजदूर को जीवन भर सहनी होती है। आपने हमारे बच्चों को आजाद तो करवा दिया लेकिन हमारे मुंह का निवाला छीन लिया। अब हमारे चूल्हे कैसे जलेंगे ये भी बता दो साब। ये पसीने की बूंदे और हाथ के छाले ही हमारी जिंदगी है साब और आप हमसे हमारी जिंदगी मत छीनों ...!!"