हम कौन हैं

हम कौन हैं

3 mins
741


ओह देव, तुम्हारे स्पर्श के अवसंजन से मेरा रोम रोम स्पंदित हो उठा, मेरे समग्र अस्तित्व में, तुम महक बन कर उतर गए और मैं एक सुवासित पुष्प बन कर खिल उठी। भोर की अरुणिम किरणों के संग उतर आए तुम मेरे मन आंगन में और अपनी स्वर्णिम आभा से मुझे आलौकित कर दिया। 

ओ मेरे आराध्य, अपनी प्रीत का मधु उंडेल कर तुमने मुझे संगम का मनोरम उपहार दिया। मैं तुम्हारी प्रीत की अनुगामिनी बन चल पड़ी तुम्हारे पीछे पीछे कल्पना लोक के आनंदमय उपवन में। 

ओह मेरे नाथ, आज तुमने मुझे, मेरे होने का प्रमाण दे दिया जब मेरी पलकों को अपने अधरों से छू कर मेरी दृष्टि को दिव्य बना दिया। मेरे नयनों की ज्योति अब सिर्फ तुम्हारे ही लिए है। जन्मजन्मांतर तक बस देखूं तो तुम्हें ही देखूं। 

ओ मेरे स्वामी, मेरे लरज़ते अधरों पर अपने अधरों को रख, तुमने अमृत्व का पान करा दिया, आजन्म इन पर बस तुम्हारे ही नाम का सुमिरन करती रहूँ। 

हे कामदेव, मेरे अंग अंग में तुमने प्रेम रस छलका कर मुझे नारीत्व प्रदान किया। मेरा सम्पूर्ण, मेरा स्व, उपकृत हुआ मेरे नाथ। 

मेरी अंतरंगता के उपासक, अपना सर्वांग सौंप कर तुम्हारे कदमों की छाया को अपना भाग्य मान चलती रही हूं। युगों युगों तक तुम्हारी ही छाया बन कर। 

"अरे कहाँ हूँ मैं, अचानक जाग उठी राधिका, कितना सुंदर स्वप्न देख रही थी। तुम्हें भी सुनाऊँ, तुम ही तो आये थे मेरे स्वप्न में नायक बन कर। सुनो तो, अरे कहाँ चले गए तुम, मुझे नख से शिख तक अनंत अनुबन्धों में जकड़कर। स्वच्छन्दता के खुले आसमाँ में उड़ रहे हो तुम और मैं सोलह श्रृंगार में अलंकृत, सात वचनों में बंधी तुम्हारी अर्द्धांगिनी बन कर जप रही हूं सदियों से तुम्हारे ही नाम की माला। 

मेरे कौमार्य का सर्वांग आधिपत्य पाकर भी तुम मेरे मोहपाश से दूर निकल गए। 

मुझे आजीवन भोग्या ही समझते रहे और मैं प्रथम मिलन की रात्रि में समर्पण की लज्जा छोड़, तुम्हें आराध्य मान अपने अंतर्मन के उच्च सिंहासन पर विराजित कर अपनी देह और आत्मा के कण कण को समर्पित करती रही। 

तुम देह की कामना में विचरते रहे मैं आत्मिक संगम के पवित्र पलों को संजोती रही। तुम आत्मीयता के पाखंड से दैहिक वासना तक चलते रहे, मैं आत्मीयता की चाह में देह को अर्पित करती रही। तुम मेरे पास हो कर भी साथ नहीं रहे, मैं हर रूप में तुम्हारे संग रही।

"अरे ..अरे मेमसाहब उठोगे नहीं क्या ? रात भर लिखते ही रहे, न चश्मा उतारा न बत्ती बुझाई, सब दरवाजे खुले पड़े हैं। आज भी साहब घर नहीं आये ?"

एक सांस में बोल गई शांता बाई, लेकिन राधिका अभी भी लेखन के स्वप्न से बाहर नहीं निकल पाई थी। बुदबुदाते हुए बोली-

"हम कौन हैं ...शांता ?" 

एक लंबी सांस लेकर शांता बाई बोली-

"मेमसाहब, झोंपड़ी से महल तक, औरत एक ज़िस्म है और कुछ नहीं, और ये मर्द एक औरत को उसके ज़िस्म से आगे न कभी देख पायेगा न सोच पायेगा।"


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Abstract