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ग़ुलाबी ठण्ड

ग़ुलाबी ठण्ड

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कड़कड़ाती ठण्ड में तो हाथ-पैर ऐंठ से जाते हैं, एसी शुष्कता कि दो-तीन दिन तक भी ना नहाओ तो बदन को पसीने की एक बूँद तक का एहसास ना हो। एसी ठण्ड में तो जुराबें बदलने तक का इत्मीनान नहीं रहता कि एक जोड़ी उतारकर दूसरी ही पहन लूँ और ना ही दस्तानों से हाथ बाहर निकलते कि, सब्ज़ी काट ली जाए या चावल, दाल धो लिया जाए। थरथराहट के मारे दाँत किटकिटाते निकल जाती है रात और नींद खुलते ही धूप निकलने का इंतज़ार करते कटती सुबह। फिर जैसे-तैसे सीढ़ियाँ चढ़ छत पर पहुँच जाती हूँ, गली के बच्चों को उन्मुक्त पतंग लेकर भागता देखती हूँ तो बड़ा अच्छा मनोरंजन होता है। उन मुए सास-बहू, भूत-पिशाच दिखाकर बेवकूफ बनाने वाले टी.वी प्रोग्रामों से तो बेहतर। मन कहाँ लगता है अब टी.वी या सिनेमा देखने में, हां, संगीत ज़रूर सुनती हूँ और पुराने नगमे गुनगुनाती रहती हूँ और वहीं चटाई पर बैठे-बैठे सोलर कुकर में खाना पकाया करती हूँ। पर कमबख्त सूरज ढलते ही मन गमगीन सा हो जाता है, समझ नहीं आता कि नीचे जाकर क्या करुँगी। कमरा बहुत ठंडा हो जाता है, कम-स-कम आधा-पौना घंटा लग जाता है अपने शरीर की गर्मी से रज़ाई गर्म करने में। फिर आठ बजते ही लग पड़ती है भूख, दोपहर का बनाया हुआ खाना ही गर्म करके खा लिया करती हूँ । अकेले इंसान के लिए दो बार खाना बनाने का भला क्या उद्देश्य?

अगली बार जब टिंकू आयेगा तो वो इलेक्ट्रिक कम्बल लाने के लिए कहूँगी। उसमें दुबककर सोने के भी मज़े ले लूँ ज़रा, अब इतना तो करेगा ही माँ के लिए नहीं तो बस चिंकी ही पड़ताल करती है समय-समय पर माँ की ज़रूरतों की। ससुराल वाले बड़े सख्त हैं उसके, आने ही नहीं देते मेरे पास। अब मेरे बुढ़ापे के लिए बेटी को ढाल बनाना भी तो ठीक नहीं, बेटी ब्याह दी तो समझो हो गयी परायी, कुछ कह भी नहीं सकते। टिंकू को अब ज़िम्मेदारी का एहसास कराना ज़रूरी है ।

खैर......बच्चे हैं, जियेंगे अपनी ज़िन्दगी आख़िर गुस्सा तो इनपर है, आधे सफ़र में ही साथ छोड़कर चले। गए। अभी होते तो शौक से गाजर हलवा बनवाते मुझसे और ऐसे चाव से खाते जैसे कि स्वाद से बेहतर तो कोई सुख ही नहीं हो जीवन में, फ़िर जमकर तारीफ़ भी करते मेरी हीही...

ठण्ड कम हो ज़रा तो कुछ बनाने की हिम्मत भी जुटा पाऊँ, पर जाती हुई उस गुलाबी ठण्ड के भी क्या कहने। थोड़ी गर्मी महसूस तो होती है पर शॉल स्वेटर छोड़ने का मन नहीं करता, बिन बात ही चिपकाए रखती हूँ कम्बल को अपने शरीर से, भले ही ऊपर से पंखा क्यूँ ना चलाना पड़े। तब अगली गली के ठेले से लाये गरम-गरम समोसे, चाय के कप से निकलती भाप के साथ जब खाया जाए तो आधा दिन बिना पेट-पूजा किये निकल जाए, ऐसी ठण्ड पसंद है मुझे।

घर की क्यारियों में लगे फूलों के पौधे कितना सुकून देते हैं, चाहे खुद पानी ना पियूं, पर इन्हें पानी देना नहीं भूलती मैं और क्यूँ न करूँ ? टिंकू-चिंकी के पापा के लगाये हुए हैं ये पौधे। उन्हें सींचना ही जीवन जीने का आधार सा लगता है अब, उनके साथ होने का आभास दिलाता है। ऐसा लगता है कि कोई भी पौधा सूखते या मुरझाते देख नहीं पाऊँगी अब। लगता है जैसे उनकी और मेरी डोर साथ में बंधी हो, उफ़! ये पेड़ से पक-पक कर स्वतः ही गिरते पपीते इतने मीठे हैं कि मिश्री की मिठास भी फीकी पड़ जाए। पर इन अभागों को कोई खाने वाला ही नहीं है। कितनी बार कह चुकी हूँ गीता को चार-पांच थैले में भरकर ले जाने को पर जब भी काम करने आती है, भूल जाती है। कुछ पपीते उन पतंगबाज़ बच्चों को भी बुलाकर दे दूंगी ।

इतने व्यस्त हो गए हैं सब कि खाने-पीने का तो कोई महत्व ही नहीं रहा, अगर कभी बुला के कह दूँ कि आओ पैसा देती हूँ, मोबाइल देती हूँ, कपडा-लत्ता देती हूँ, देखना कैसे भागते हुए आयेंगे वाह री नई सदी।

अब मुझ जैसी सीधी-साधी बुढ़िया क्या मज़ा लुटायेगी नई सदी में? जिसे बस ये मोबाइल का नंबर डायल करने और फोन उठाने के इलावा कुछ नहीं आता। वो तो मेरी बिन्नी को इतना प्यार है मुझसे कि साल में एक बार आती है पर सारा समय नानी के पास बैठती है, आखें फाड़ के, मुंह खोल के तल्लीन होके मेरी कहानियां सुनती है और कहती है “नानी ! आप बहुत अच्छा गाते हो, कोई गाना भी सुनाओ ना” हीही, मेरी प्यारी बिटिया।

उसके आने से एहसास होता है कि क्या-क्या पीछे छोड़ आई मैं जो इस बढ़ते वक्त के साथ पकड़ नहीं पा रही।

उसी ने सिखलाया कि कैसे मैं इस फोन में अपना गाना रिकॉर्ड कर सकती हूँ, पर गाना-वाना तो ठीक किसी के ना रहते ये खुद से बात करने का माध्यम ज़रूर बन गया है।

चलो जो है ठीक है, नई तकनीकों का इस्तमाल तो मैं भी कर रही हूँ, अकेलापन दूर करने में, हाँ वो बात अलग है कि दूसरी ओर कोई इंसान नहीं बस एक यंत्र है। “कभी-कभी तो इतनी बोरियत आ जाती है कि लगता है अगली सुबह ही ना हो।”

ठीक दो दिन बाद इसी रिकॉर्डिंग की अंतिम लाइन को सुनकर एक आठ साल की बच्ची ने मोबाइल फ़ोन अपनी माँ को थमा दिया जो उसकी नानी के क्रियाकर्म के लिए अपने अमेरिका में रहने वाले भाई को फोन लगाने में व्यस्त थी।

काम करने आई गीता ने बताया उस दिन मौसम खराब था, ज़ोरों की आंधी आई थी, मूसलाधार मावट की बारिश हुई। पपीते के पेड़ गिर गए, क्यारियों के पौधे उखड़ गए ।


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