नौटंकी कहीं की !
नौटंकी कहीं की !
अदिति जयपुर की मानसरोवर कोलोनी में रहती है।उसके पिताजी रिक्शा चलाते हैं और माँ सिलाई, कढ़ाई और बुनाई का काम करती है।परिवार के आजीविका के तरीकों से वे किसी निम्न मध्यमवर्गीय परिवार की मालूम होती है पर असल में उनकी आय मध्यमवर्गीय है।अच्छे से गुज़ारा भी होता है और बचत भी।वो यूँ कि उस घर में कला हर व्यक्ति पर मेहरबान है।माँ अपनी सिलाई के लिए सारे इलाके में जानी जाती है।डीज़ाईनर सलवार कमीज़ से लेकर कढ़ाईदार ब्लाउज, टेबल क्लॉथ, थैले, पिलो कवर्स, क्या क्या नहीं बनाती वो।एक-एक महीने आगे तक के ऑर्डर पड़े रहते हैं माँ के सिलाई के कमरे में।कंवारी कोलेज की लड़कियां, नवविवाहित युवतियां अक्सर उसकी माँ को मस्का लगाया करती हैं "आंटी जी मुझे शादी में जाना है अगले हफ्ते, प्लीज पहले मेरा कुरता सिल देना ना, तो कोई कहती "चार दिन में लड़के वाले देखने आने वाले हैं, मैं आपके हाथ की फिटिंग का ही ब्लाउज पहनना चाहती हूँ अपनी नई साडी के साथ, पहले मेरा कपड़ा ले लीजिये ना"| माँ सारा दिन व्यस्त रहती हैं, उनके कमरे में पड़े कपड़ों के ढेर और उनके बटुए में ठुसे नोटों की सत्थियाँ उनकी प्रतिभा और मेहनत को बाखूबी बयां करते हैं।
पिता एक रिक्शाचालक हैं परन्तु एक अच्छे हारमोनियम वादक हैं।वे शहर की तीन चार भजन मंडलीयों के साथ जुड़े हुये हैं।अक्सर उन्हें लोगों के घरों में रखे जगरातों और भजन संध्या में हारमोनियम बजाने के लिए उनके मंडल के साथ बुलवाया जाता है।किसी मंदिर का अभिषेक हो या त्योहारों की पूर्व संध्या, उनकी मण्डली कहीं न कहीं अपनी प्रस्तुति दिया करती है।पिता भी अपनी संगीत में रूचि व लगन की वजह से अपने परिवार के लिए अच्छी सुविधाएँ जुटा पाते हैं।वे एक ठेठ रिक्शेवाले नहीं हैं, उनकी सोच अध्यात्मिक और गहरी है।वे कम पढ़े लिखें हैं क्यूंकि बचपन में ही माता-पिता की मौत के बाद से खुद की व अपने छोटे भाई बहनों के भरण पोषण की ज़िम्मेदारी के चलते मेहनत मजदूरी करके जीवन यापन के सिवाय और कोई चारा भी नहीं था उनके पास।रेल के डब्बों में हारमोनियम बजाकर भीख मांगने से लेकर रिक्शा चलाने का सफ़र भी बड़ी मुश्किलों से तय किया उन्होंने।किसी बड़े का सर पर साया ना होने और रिश्तेदारों द्वारा भी उन्हें अपने हाल पर छोड़ दिए जाने से वे बुरी लतों में पड़े पर समय रहते खुद को उससे बाहर निकाला और अपने लिए एक ठिकाना बसाया, शादी की, समाज में रहने लायक घर बनाया और परिवार शुरू किया।अब वे बाकियों की तरह पान गुटका खाकर या शराब पीकर अपने और अपने परिवार के हालातों पर बट्टा नहीं लगा रहे थे।वे तो बुरे समय में भीख मांगने के लिए सीखी कला को सही मायने में तराश रहे थे।कला प्रेमियों की कला प्रायः उनकी आँखों के तेज में झलकती है।बस वैसे ही थे उसके पिता भी।सरल और सामान्य पर अनूठे।
अदिति की एक बड़ी बहन है अनूपा जो उससे दो वर्ष बड़ी है, बहन की शादी शहर में ही समाज के एक अच्छे परिवार में हुई है।अनूपा की उम्र कुछ 24 साल है और उसकी हाल ही में शादी हुई है।माँ के साथ रहकर उसने भी काफ़ी अच्छी सिलाई सीखी है पर उसकी कढाई-बुनाई में विशेष रूचि है।अच्छे से अच्छे ब्रांडेड स्वेटर और डिजाइंस को वो हूबहू कपडे पर उकेर सकती है।अपने इस कौशल की वजह से उसकी ससुराल में भी साख है।वो भी चाहती है कि नई जगह पर अपनी रूचि से लोगों को अवगत करवाकर वो जल्द ही कुछ काम शुरू कर सके।वैसे मॉल कल्चर और टी.वी, इन्टरनेट ने नई पीढ़ी के साथ-साथ बड़े बूढों की भी बुद्धि भ्रष्ट कर रखी है।सब भेडचाल में चले जा रहे हैं।हाथ से बुनी ऊन का स्वेटर अब किसे पहनना, अब तो सब को वो कपडे पहनने हैं जो ट्रेंड में हो।भले ढेले भर की ठण्ड न रुके उस लिबास से, शरीर थरथराये, पर खरीदना वो ही है जो स्टाईल में है।हैण्डीक्राफ्ट अब बस पर्यटकों तक सिमट कर रह गया है।खैर कला की ख़ास बात ही ये होती है कि वो मौके की मोहताज़ नहीं होती।कलाकार अपना मौका खुद बनाता है।वो भी कुछ न कुछ कर ही लेती होगी जो उसे ख़ुशी और संतुष्टि देता होगा।
अनूपा के पति रेलवे में टी.सी हैं।अदिति की जीजाजी से खूब पटती है।बहन का घर अपने घर से कुछ 10 किलोमीटर है, जब उसका मन किया मेट्रो पकड़कर मिलने निकल पड़ती है।उसे बहन से मिलने से ज्यादा जीजाजी से मिलने की उत्सुकता होती है।जीजाजी उसे ट्रेन के पैसेन्जर्स के अजीब-ओ-गरीब किस्से सुनाते हैं और वो उन चरित्रों को मन ही मन सोचकर लोट पोट हो जाया करती है।जीजाजी की अपनी कोई बहन नहीं हैं और वे अदिति को भाई सा स्नेह देते हैं और अदिति भी उन्हें उतना ही मानती है।जीजाजी का एक और छोटा भाई है जो अदिति का अच्छा मित्र है और उनके मम्मी-पापा भी काफ़ी व्यवहारिक हैं।उन्हें अदिति के घर आने से कोई आपत्ति नहीं होती।अदिति के कम दोस्त हैं इसीलिए उसे बहन के यहाँ के हम-उम्र और जिंदादिल लोगों के साथ समय बिताना अच्छा लगता है।जीजाजी उससे अक्सर ये पुछा और चिढाया करते हैं कि, कुछ महीनों में कोलेज ख़तम हो जायेगा।आगे क्या करोगी सोचा है ? जॉब या फिर शादी? इस बात पर मुंह फुलाने या नखरे करने के बजाये अदिति स्वयं सोच में पड़ जाया करती है।वो अक्सर सोचती है उसके परिवार में हर व्यक्ति के पास कोई न कोई कला है, मां हो पापा हो या बहन, हर कोई अपनी रूचि के क्षेत्र में माहिर है।"आख़िर मुझमे उनमे से एक भी गुण क्यूँ नहीं आया ? न मुझे सिलाई पसंद है न संगीत में कोई खास रूचि है और ना ही मैं अच्छा खाना पकाना जानती हूँ।पढ़ाई में भी ठीक ठाक हूँ।पर जॉब करना ही तो सबकुछ नहीं होता।मानसिक संतुष्टि के लिए, व्यक्तिगत विकास के लिए किसी चीज़ में दिलचस्पी तो होनी चाहिए।जैसे पापा को है।वो तो रिक्शा चलाते हैं फिर भी अपनी होबी के लिए टाइम निकालते हैं और खुश रहते हैं।मैंने उन्हें कभी तनाव में नहीं देखा क्यूंकि उनकी कला उन्हें नकारात्मकता की ओर जाने नहीं देती।काश मैं भी खुद में ऐसा कुछ ढूंढ पाती"।
पर अपनी सोच को ज़ाहिर न करते हुए वो फ़ीकी सी मुस्कान के साथ कहती "सब लोगों के पास थोड़ी न कोई टैलेंट होता है, बहोत जनता मेरी तरह ही होती है, क्लूलेस।"
"और रही बात जॉब ढूँढने की, हाँ वो तो मैं कर ही लूंगी, पर बात ये है कि मुझे काम करना भी पसंद नहीं।" और सब ठहाका मार के हंस पड़ते।उसके जीजाजी के साथ उसकी बनने का ख़ास कारण ये है कि वे उसे कभी हतोत्साहित नहीं करते हैं बल्कि उसकी बात सुनते हैं और ज़रूरत पड़ने पर उसे सलाह देते हैं।
अपने घर वालों की तुलना में वो खुद को बिलकुल काबिल नहीं मानती है, पर कुछ तो खास बात है उसमें। जीजाजी ये अच्छी तरह जानते हैं कि उसकी क्षमता क्या है बस उसे सही मार्गदर्शन की ज़रूरत है। बाइस की उम्र में भी वो बहोत शांत और सरल है। माँ के पास कपडे सिलवाने आने वाली हमउम्र लड़किओं से काफी हटके। गिन के पांच छह सलवार कमीज़ होंगे। उसे अच्छे कपडे पहनके जंचने का तो बिलकुल शौक नहीं है बल्कि वही तीन चार जोड़ी लड़कों जैसे ढीले ढाले टी शर्ट्स और जींस में घूमती है।
कॉलेज में कई नुक्कड़ नाटक और ड्रामा में भाग लिया था उसने, जिसमे वो लड़के का किरदार बड़े अच्छे से निभा लेती थी पर ऐसा भी न था कि उसने कोई और किरदार ना उकेरे हों। चाहे तीस साल का लड़का बना लो, सत्तर साल कि बूढी या सोलह बरस की बच्ची। अपना हर भाग वो बड़ी संजीदगी और शिद्दत से निभाती थी। तभी उसके कुछ करीबी दोस्त उसे नौटंकी बुलाते हैं। अपने इस शौक के बारे में उसने बहन और जीजाजी के इलावा और किसी को ज्यादा नहीं बताया है। वो उन्हें कभी-कभी अपने परफॉर्मन्स के वीडियोस दिखाया करती है और खूब वाहवाही बटोरती है। अमूमन उसकी बहन उससे कहा करती है "बाकी कुछ करे ना करे नौटंकी बड़ी अच्छी कर लेती है ये लड़की। "
बचपन की यादों में अक्सर गोते खाते हुए अनूपा कहती " ये स्कूल ना जाने के कितने बहाने करती, पेट दर्द का नाटक तो ऐसे करती कि मम्मी-पापा भी नहीं समझ पाते थे कि सच कह रही है या झूठ।और स्कूल में होमवर्क ना करने के हज़ार बहाने उफ़ ! बस वो ही सब कर कर के आया है ये हुनर !" इस बात पे अदिति भी अभिमान ले के आँखे तरेरा करती है।
दिन निकल रहे है, अदिति फाइनल ईयर में पास हो गयी। सब खुश हैं कि फेल नहीं हुई। अब कुछ समय में ग्रेजुएशन डिग्री भी मिल जाएगी।फिर कोई जॉब ढूंढवायेंगे।
अदिति ने चैन कि सांस ली । माँ कभी कभी झुंझला दिया करती है उसपे, सारा दिन बैठ कर फिल्में देखती है। कुछ करती क्यों नही? थोड़ा खाना बनाने में ही मदद कर दिया कर। कुछ जॉब वगैरह या आगे पढाई के बारे में पता कर। परीक्षा ख़तम हुए एक महीना हो गया, अब तक आराम फरमा रही हो। हो गया है कॉलेज ख़तम, अब थोड़ा गंभीरता से सोचो जीवन के बारे में , समझी ?
अदिति फिर झल्ला उठती "चैन से जीने मत दो तुम, बस कुछ ना कुछ बोले चली जाओ। कुछ ना कुछ तो करना है, बस करते ही रहना है। अब थोड़ा टाइम मिला है तो दम लेने दो ना। क्यों पीछे पड़ी रहती हो यार"
माँ से उसकी तकरार अक्सर हुआ करती थी और डाँट खा-खा के वो बोर भी होने लगी थी। पापा कभी कभी उसका पक्ष लिया करते थे, पर वे भी बेटी को लेकर अजीब तरीके से चिंतित थे। फिर वो खुद ही आईने के सामने खड़े होकर खुदसे कहा करती "करियर, फ्यूचर, फलाना, ढिमकाना ,,,, क्या है ये सब? इन शब्दों से ही चिढ है मुझे"खैर दिन तो कट ही रहे थे हैं और आज उसके एक प्रोफ़ेसर का कॉल उसके मोबाइल पर आया।
"हेलो अदिति, मैं प्रोफ़ेसर गिरिजा बोल रही हूँ। "
अदिति सोच में पड़ गयी "यस मैम"
"हाँ तुमको देखा है मैंने स्टेज पे कई बार, प्लेज़ में । अच्छी एक्टिंग करती हो तुम। फुल टाइम थिएटर में इंटरेस्ट है क्या?
अदिति उछल पड़ी "यस मैम, कोई प्रोजेक्ट है क्या?"
"हाँ इसी लिए नंबर लिया तुम्हारा स्टाफ से, एक्चुअली मेरी एक दोस्त दिल्ली में एक ड्रामा स्कूल चलाती है और उसे अपने थिएटर ग्रुप के लिए लॉन्ग टर्म अच्छे आर्टिस्ट्स कि ज़रूरत है।
और अगर तुम उसे जॉइन करना चाहो तो तुम्हारा उसके ड्रामा स्कूल से सर्टिफिकेशन भी हो जायेगा नॉमिनल फीस में।और शायद वो तुमसे फीस ना भी ले अगर उसे तुम्हारा ओन स्टेज काम पसंद आया तो"
"दिल्ली जाना पड़ेगा?" अदिति ने धीमी आवाज़ में पूछा
"हाँ कुछ समय तो रहना पड़ेगा, रहने खाने कि टेंशन मत लो, वो एक रेकग्नाइज़्ड आर्टिस्ट है, सब अरेंजमेंट हो जायेगा"
"अच्छा, पर वो तो मेरे पेरेंट्स से पूछना पड़ेगा मैम"
"हाँ हाँ, कोई जल्दी नहीं है। आराम से पूछकर मुझे बताओ। उसने रेकमनडेशन माँगा तो मुझे तुम्हारा खयाल आया, इसीलिए तुम्हारा नाम सजेस्ट किया"
"जी, थैंक यू सो मच मैम, मैं जल्द ही आपको बताती हूँ।"
"ज़रूर"
अदिति अपने बिस्तर से कूद पड़ी और माँ को पुकारा "मम्मी............ओ माँ....."
"बोलिए महारानी", माँ ने झल्लाते हुए जवाब दिया
"तुमको पता है कॉलेज के ड्रामा कॉम्पीटिशन्स में भाग लेती थी मैं कभी कभी....अलग अलग कॉशच्युम्स सिलवाती थी तुमसे?"
"हां किया तो है तूने एक आध बार ऐसा कुछ, हां तो क्या हुआ? दोबारा कुछ सिलवाना हैं??"
"नहीं मैं थोड़े टाइम के लिए एक्टिंग सीखना चाहती हूँ, वैसे भी अभी कॉलेज ख़तम ही हुआ है, जॉब के चक्कर में फस गयी तो कुछ और नहीं कर पाऊँगी"
"क्या कहती हो कर लूं ना?"
माँ हंसी "अरे....एक्टिंग भी कोई सीखने की चीज़ है? तू तो बचपन से ही ड्रामेबाज़ है, जो कहेंगे कर देगी"
"अरे बहोत कुछ होता है सिखने को, क्यूँ नहीं होता? आसान थोड़ी न है?"
"तो मुश्किल भी क्या है ऐसा कि सिखने की नौबत आ जाये? और ये सीखके करना क्या है? इसके बूते पे जॉब लगेगी?" माँ ने अनमने ढंग से कहा।
"अरे माँ क्या पता जॉब करने की नौबत ही ना आये, फूल टाइम थिएटर आर्टिस्ट ही बन जाऊं" अदिति की आखें स्वप्निल थीं।
"तो अब नौटंकी करोगी तुम?
करो भई जो अच्छा लगे" माँ ने निराशा से कहा
"यहाँ रह के नहीं हो पायेगा, दिल्ली जाके करना है कोर्स "
"दिल्ली??" " कभी जयपुर से बाहर भी निकली हो?" माँ ने उसकी आखों में आँखे डालते हूए पूछा
"कभी मौका ही नहीं मिला।अब मौका है।अब निकलूंगी।" अदिति ने भी नज़रें मिलायीं
"और रहना कहाँ, कैसे लोग हैं? क्या करते हैं? तुम जानती हो उनको? या बस ऐसे ही बिस्तरा उठा के चल दोगी?" माँ विचलित हो गयी।
"अरे जांच परख के ही कह रही हूँ, मेरे कॉलेज की प्रोफ़ेसर ने खुद मुझे आगे से फ़ोन किया, उनकी फ्रेंड ही तो है वो जिसका ड्रामा स्कूल है"
"मैं तो नहीं मान रही तेरी बात, और ना ही मुझे तेरी बातों पर यकीन है"
"लोग क्या कहेंगे, अब बेटी को नौटंकी करने भेज दिया।" माँ झल्लाई।
"तुम तो बहोत ओवर रियेक्ट कर रही हो मम्मी, रुको पापा को आने दो, उनसे बात करुँगी" अदिति ने शिकायत करने के अंदाज़ में कहा।
अदिति पापा के आने का इंतजार करने लगी पर वे किसी संगीत संध्या में व्यस्त होने की वजह से रात में देर से लौटे।"
अगले दिन नाश्ता करते वक्त दोनों में से किसी ने उससे कोई बात नहीं की और ना ही कुछ पूछा।अदिति भी बिना कुछ कहे बैग लेकर बाहर निकल गयी।उसने मेट्रो ली और सीधा बहन के घर गयी।
दिन भर बहन से बतियाई, उसे सारी बात बताई।बहन ने भी कोई खास दिलचस्पी नहीं ली उसकी बातों में और ना ही उसे अपनी बहन की मान्यता की दरकार थी।वो तो जीजाजी से बात करने आई थी| उनके ड्यूटी से लौटते ही उसने जीजाजी को अपनी दुविधा के बारे में बताया।जीजाजी कुछ देर तक कुछ नहीं बोले फिर मुस्कुराए और कहा चलो आज मेट्रो मत पकड़ो, तुम्हें घर छोड़ कर आते हैं।इस बहाने तुम्हारी बहन और मैं भी मम्मी पापा से मिल लेंगे|
शाम को जीजाजी बीवी और साली को लेकर घर पहोंचे।मम्मी पापा दोनों को देखकर खुश हुए।रात का खाना साथ खाया और इधर-उधर की बातें की।अदिति ने फिर अपने ड्रामा स्कूल की बात छेड़ दी| पापा ने सामान्य स्वर में कहा "हाँ मम्मी बता रही थी| अरे क्या भूत चढ़ गया तुमको अचानक ये।अगर शौक है इनसब चीजों का तो शहर में ही करो।यहाँ भी कुछ न कुछ होता होगा।वहीँ जाके क्या नया हो जायेगा?"
"पापा आप समझ नहीं रहे हो, वहां का एक्सपीरियंस काफ़ी नया होगा"
जीजाजी ने अपना गला साफ़ किया और बोले "नये लोगों से मिलेगी, इस शहर से बाहर निकलेगी।कुछ सीखने में बुराई क्या है? कम से कम रूचि तो है इसकी किसी चीज़ में आप लोगों की तरह।
पापा ने कहा "हम लोगों की बात अलग है बेटा, हमलोगों ने अपने अपने दायरे में रहकर अपने शौक पुरे किये और कर रहे हैं।इसकी तरह कुछ ऊटपटांग सोच दिमाग में नहीं आई कभी।"
"शौक कभी दायरे में रहकर पूरे नहीं किये जाते पापा।और शौक शौक ही होते हैं, इसमें ऊट-पटांग क्या है?" सिर्फ इसीलिए कि इसके कला का क्षेत्र आप लोगों से हटकर है।हाँ उसे मम्मी की तरह घर बैठे कपडा सील कर पैसा नहीं मिलेगा या आपकी तरह गाने के बुलावे नहीं आयेंगे।पर जो ये करेगी शायद उससे इसे ख़ुशी मिलेगी"
वो बोलते रहे "ये बिलकुल उसी तरह की ख़ुशी है जो आपको अपने बुने हुए कपडे की तारीफ सुनकर मिलती है या आपको अपने हारमोनियम से मिली वाह-वाही के लिए मिलती है।"
माँ एकाएक बोल पड़ी "नौटंकी में बस तालियों से खुश होना पड़ेगा।ना जाने कैसे कैसे लोगों की संगत करनी पड़ेगी।तुम समझते नहीं हो बेटा, जवान लड़की है।"
जीजाजी ने फिर बोलने का मौका उठाया और कहा "जवान है, बच्ची नहीं है, तभी अपनी सोच को अमली जामा पहना सकती है, जो ठाना वो कर सकती है।क्या पता ये शौक, शौक न रहकर जूनून में बदल जाये।और किसी भी चीज़ के लिए जूनून होना इन्सान को और तराशता है, काबिल बनाता है, आगे के रास्ते दिखाता है।"
"और नौटंकी-नौटंकी, क्या है ये नौटंकी? ये एक कला है, जिसे अभिनय कहते हैं।" जीजाजी ने आत्मविश्वास से कहा और कहते चले गए..
"अच्छा ये बताइए, क्या आपकी नज़रों में दर्ज़ी कहलाना एक शर्म की बात है? या पापा को लोग गाने-बजाने वाला बुलाएं ? वो बुरा लगता है सुनने में?"
दरअसल ये दोनों बातें भी वैसी सी लगती हैं, जैसे अभिनय को नौटंकी कहना !" अपने आखरी वाक्य से जीजाजी ने अपनी खुली और निडर सोच का परिचय दिया।
"माँ, पापा और बहन एक दुसरे का चेहरा देख रहे थे और अदिति अपना सामान पैक करने में जुट गयी"