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Khushboo A.

Drama Inspirational

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Khushboo A.

Drama Inspirational

खीर

खीर

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सुबह-सुबह सोहन हलवाई की 78 लीटर की लोहे की कढाई से खीर पकने की खुश्बू सारे बाज़ार में छा जाती है। इतवार का दिन है, सुबह के 11 बज रहे हैं। लखनऊ शहर के बीचों-बीच मशहूर अमीनाबाद बाज़ार में व्यापारी अपनी दुकानें खोल रहे हैं। खरीददारों की चहलकदमी भी उसी के साथ शुरू हो रही है। उसी बाज़ार का सबसे पुराना व्यापारी सोहन हलवाई अपनी खीर के लिये बड़ा विख्यात है। उसकी बाकी सब मिठाइयाँ तो ठीक-ठाक ही हैं, पर खीर बेहद उम्दा। देखा जाय तो एक हलवाई की सभी मिठाइयाँ मशहूर कभी हो ही नहीं सकती। अगर ऐसा करिश्मा हो जाये, तो शहर के बाकी हलवाई तो सर पकड़ के बैठ जाएँ। वैसे हर मशहूर हलवाई की अपनी एक खासियत होती है, एक ऐसी मिठाई जिसकी विधि जो सिर्फ मिठाई बनाने वाले को पता होती है। सोहन हलवाई की खीर में भी कुछ ऐसा ही जादू है| दूध-चावल को घंटो तक कलछी से चला-चला कर द्रव्य मावे की तरह गाढ़ा बनाया जाता है, फिर ताज़े केसर की बूंदे और सूखे मेवे डाल कर बारीकी से फेंटा जाता है, फिर गुलाब की पंखुड़ियां डाल कर इस बेहतरीन व्यंजन को भट्टी से हटाया जाता है। बस हटाने की देर और लोग लम्बी कतारों में लग जाया करते हैं। कमाल की है ये खीर। और इसी खीर की वजह से दूकान की बाकी मिठाइयाँ भी ज़ोरों से बिकती है। अब ज़िक्र जो खीर का हो रहा है तो ये भी बता दिया जाय कि पकने के चंद घंटो में ही लबालब कढ़ाई सफाचट हो जाया करती है। आख़िर क्या है इस कमबख्त का नुस्खा, सोच-सोच कर शहर के सारे हलवाई दांत पीसा करते हैं। पर मशहूरियत तो ऊपर वाले की दी बक्शीश है, जिसके हिस्से में आ गयी, वो राज़ी। और बाकी दुनिया नाराज़ी।

यूँ ही नहीं कहा जाता कि पैसा सबसे ऊपर नहीं है| दुनिया में ऐसी बेशुमार चीज़े हैं जिसका मज़ा पैसेवाला भी नहीं ले सकता और करिश्मा तो ये है कि वोही चीज़ कभी फ़क़ीर के हिस्से में आ जाती है।

सही मायने में हुनर गरीब-अमीर, रंग-भेद, छोटे-बड़े, पढ़े-लिखे अनपढ़ में फर्क नहीं करता। पकाने वाले के हुनर की अब कितनी तारीफ़ की जाय, खीर पकने के समय में पहुँच जाओ तो एक-आध दोना नसीब हो जाये, और देर से पहुंचों तो नोटों से भरे थैले का भी कोई जोर नहीं चलता। हलवाई अब भी पुश्तैनी दूकान को उसी क़ैफ़ियत में रखे हुए है। रोज़ की इतनी आवक-जावक के बाद भी दूकान में एक इंच की बढ़ोतरी नहीं हुई ना ही अन्दर की दीवारों के रंग बदले हैं। जब ताबड़तोड़ बदल रहे लखनऊ के परिवेश से तंग आ जाओ तो इस दूकान को देख लो, ये अब भी उन मकबरों, दरवाज़ों, बागों, छतरों के समय की याद दिलाएगी। और इतनी हद तक यदि ख़ुदको ना जोड़ पाएं, तो किसी भी स्थानीय बच्चे या उसके माँ-बाप को तो उनके बचपन की याद दिला ही देगी। निचोड़ ये है कि गर किसी घर की तीन पीढियों को भी दुकान के बारे में पूछा जाये तो दुकान के बारे में उनके शाब्दिक चित्रण में कोई ख़ास फर्क नहीं होगा|

खैर, खीर बिक जाने के डर से वो इंदिरानगर से बड़ी तेज़ी से कार चलाकर हांफता-हांफता दुकान पहुंचा। दुकान पर बड़ी भीड़ थी। अब चटोरों को तो खाने का मौका मिलना चाहिए। कुछ मिठाई प्रेमियों की तलब खीर से भी नहीं सन्तुष्ट हो रही, वे पहले ही ठसा-ठस भरी दूकान में या तो और अन्दर घुसे चले जा रहे हैं या धक्का मुक्की करते बाहर निकल रहे हैं। क्योंकि सिर्फ खीर ही नहीं, उन्हें तो पास की कढ़ाई से निकल रहे गरम-गरम समोसे भी लेने हैं। अरे समोसे ही क्यों? टिक्की की खुश्बू भी मन ललचा रही है, टिक्की भी बंधवा लेते हैं। अब टिक्की ली तो हल्का फुल्का पोहा भी साथ ले लेते हैं। अजी इतना दूर आये हैं, दूकान में इतना फंस-फंसा के मिठाई बंधवाई, अब चाय तो बनती है। दूकान की अंतिम सीढ़ी उतरते ही बगल में छगन चाय वाले का ठेला है, चाय तो पियेंगे ही। 

वो बस बेसब्री से अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा है। अपने आगे खड़े लोगों के कद से ऊँचा उठकर उसने कढ़ाई में झाँककर देखा तो थोड़ी राहत पायी। अब भी दो-तीन किलो खीर पड़ी है बर्तन में। सोच रहा है अगर मेरे आगे खडे 15 लोगों का जी एक-दो दोनों से भर जाता है तो मेरे नसीब में कुछ खीर आ जाएगी। इधर-उधर से बचते-बचाते लोगों को अपनी मिठाइयों का पार्सल ले जाते देख आखिरकार वो चिल्ला कर बोल पड़ा। “अरे भाई, आधा किलो खीर हमारी भी पैक कर दो। बड़ा दूर से आया हूँ सिर्फ खीर लेने, थोडा जल्दी दे दोगे तो मेहरबानी होगी।” उसके आगे और पीछे खड़े लोग उसे मुड़कर ऐसे देखने लगे जैसे खाने की तलब तो बस उसे ही हो रही हो, बाकि सब तो व्रत रखकर गंगा में डुबकी लगाने आये हैं।

अब खीर के स्वाद के लिये बात बेशर्मी तक आ ही गयी थी तो वो कढाई के सामने जाकर खड़ा हो गया और आधा किलो खीर के पूरे पैसे गिनकर कर आगे कर दिए। हलवाई ने खीर बाँध दी। अपनी चतुराई पर इतराते हुये खीर का पैकेट लेकर वो दूकान से बाहर निकला। कार के सीट पर किसी जीती हुई ट्रॉफी की तरह खीर का पैकेट रख वो तेज़ गति से घर की ओर चल पड़ा।

आडी-टेड़ी गलियों को पार करती, दो-एक सिग्नल तोड़ती, हॉर्न मारती गाडी सीधा घर के गेट के आगे रुकी। अब हलके से उसने घर का गेट खोला, गाड़ी पार्क की और डोर-बेल बजाई। उसकी मोहतरमा ने मुंह फ़ुलाते हुये दरवाज़ा खोला। दो दिन से ना जाने किस बात पर चिढ़ी हुई थी। उसने मन ही मन सोचा ‘एक तो उसके मूड के बदलाव का भी कुछ पता नहीं चलता, कभी ऐसा अच्छा बर्ताव करती है कि खुद को राजा और उसको अपनी रानी समझने की भूल कर बैठता हूँ, और जब बिन बात गुस्सा होती है तो लगता है वो तो रानी है पर मैं......आह ! छोड़ो|’

उसने जूते-मौजे उतारे, उन्हें जूतेदान में ठीक से रखकर हाथ-मुंह धोया। फिर पत्नी को बड़े प्यार से आवाज़ दी ‘सुनो, देखो ज़रा मैं क्या लाया?’

‘हूँ’ रसोईघर से आवाज़ आई। 

‘अरे आओ भी, सोहन लाल की खीर लाया हूँ, तुम्हारी और बच्चों की मनपसंद’

बीवी झट से उसके पास आ गई और बुदबुदाई ‘तभी इतनी सुबह-सुबह गाड़ी दौड़ा कर निकल कर पड़े|’ उसने पैकेट से खीर को बड़े कटोरे में खाली किया और उसे गहरी सांस में सूंघकर कहने लगी ‘वाह !’

बच्चे पड़ौस में गए हुए हैं, वापस आने पर परोसती हूँ। बीवी खुश। वो अपनी चतुराई पर एक बार फिर मुस्कुराया, फिर हिम्मत करके पूछने को हुआ ‘तो आख़िर हुआ क्या था तुम्हें? क्यों मूड ख़राब है ?’

बीवी ने उसपर एक पैनी नज़र डाली| वो डर गया। पर फिर तुरंत ही सामान्य होकर कहने लगी, ‘अरे मूड ना खराब करूँ तो क्या नाचूं? परसों जब पार्टी में गये थे, देखा नहीं पटनायक जी की श्रीमती ने क्या पहना था?’ उसने कहा ‘हाँ, हरे रंग की बेहद खूबसूरत साडी पहनी थी, अच्छी तो लग रही थी वो...अररर...फिर अचानक से अपनी ज़बान पर ब्रेक लगाया और अब आगे पड़ने वाली गाली के इंतज़ार में आखें बंद और कान आगे कर दिये।

बीवी गुस्से से तमतमाकर बोली ‘क्या ख़ाक? सबकुछ याद है, पर ये याद नहीं कि वैसी ही हूबहू साड़ी मेरे पास भी है। ‘ओह ! ऐसा क्या? उसने आखें फाड़कर कुछ सोचने की चेष्टा करते हुए कहा।

‘हाँ श्रीमान हाँ। और आपकी जानकारी के लिये बता दूं, वो साड़ी आपने ही दिलवाई थी मुझे 6 महीने पहले’ बीवी ने आगे का वाक्य जितना तहज़ीब से शुरू किया उतना ही ज़ोर से चिल्लाकर ख़त्म भी किया’|

वो फिर सकपका गया ‘अरे उसमे क्या मुंह फुलाना, भूल गया मैं, पर मुझे ये ज़रूर याद है कि तुम उस साड़ी में पटनायक की बीवी से तो कहीं ज्यादा प्यारी लग रही थी’

बीवी ने फिर उसकी बातों में आते हुये शरमा के पूछा, ‘ऐसा क्या?’

उसने कहाँ,’हाँ, हाँ, बिलकुल’

थोड़ी देर के नैन मटक्के के बाद, अपनी फॉर्म में वापस आकर बीवी ने एक और प्रश्न का बाण चलाया ‘पता है वो साड़ी कितने में ली थी हमने’?

उसने बड़े आत्मविश्वास से कहा ‘अरे हाँ, सब याद है। बिल मैंने दिया था, याद कैसे नहीं होगा। तुम्हारे इतने मोलभाव करवाने और दुकानदार से आधा घंटा माथापच्ची के बाद हजरतगंज से ये साड़ी हमने पांच हज़ार में खरीदी थी’

बीवी ने त्योरियां चढाई और होंठ टेढ़े कर दोनों हाथ हवा में घुमाकर कहा ‘वाह जनाब, याद है आपको तो| और पता है पटनायक जी की मैडम ने कितने में ली? सिर्फ तीन हज़ार रूपए।’

उसने अपनी बीवी की नाटकीय मुखाकृति का अनुसरण कर होठों को गोल करके बड़े अचम्भे से कहा ‘ऊऊऊऊओह ! तभी। तभी मूड ख़राब था तुम्हारा’

‘और क्या? सीधा 2000 का फटका। जब भी तुम्हारे साथ जाती हूँ, सब दुकानदार उल्लू बना जाते हैं मुझे’ बीवी रसोईघर की ओर रुख करती हुई झुंझलाकर बोली।  

माहौल को ठंडा करने के लिये उसने ज़ोर का ठहाका लगाया ‘अरे ये सब तो चलता रहता है मोहतरमा, अब गुस्सा थूक दो। ये बताओ की खाने में क्या बन रहा है? कुछ अच्छा बनाना, ताकि अंत में खीर खाने का मज़ा दुगुना हो जाय।’

बीवी ने बालों का ऊँचा जुड़ा बाँधा, साड़ी का पल्लू कमर में घुसाया। हाथ में चाकू लेकर पतिदेव की तरफ़ बढ़ी और चाकू उसे थामकर बोली, ‘तो फिर ये लो चाकू, पालक काटकर दो। पालक पनीर बनाती हूँ’।

बीवी के दिमाग को और गरम करने का कोई मंतव्य न था, अन्यथा उसके हाथ के बने स्वादिष्ट खाने से वंचित रहने की संभावनाएं बढ़ जाती | उसने झट से पालक काटना शुरू किया। 

सब काट-कूट के बीवी को पालक का पतीला ऐसे थमाया जैसे कोई कमज़ोर बच्चा टीचर को अपना होमवर्क थमाता है। और बीवी के हाव-भाव भी होम-वर्क वाली टीचर से एक रत्ती कम न थे।

सौंपे गये काम को सफलतापूर्वक करके वो पुनः सोफ़ा पर लौटा और सुस्ताने लगा। तबतक बच्चे आ चुके थे। उसने चहकते हुये बच्चों से कहा ‘बताओ पापा आपके लिये क्या लाये?’ बच्चे बचकाने जवाब देकर पहेलियाँ बुझाने लगे।

कुछ दस-पन्द्रह बार सोचो-सोचो बोलकर भी बच्चों से सही जवाब ना पाने पर उसने खुद ही बता दिया, ‘आपकी मनपसंद, खीर लाये हैं पापा।’

दोनों बच्चे ख़ुशी से उछल पड़े और उससे लिपट गये। उसने पूछा, ‘तो उसे अभी कौन खाना चाहेगा? भई मेरा तो बड़ा मन ललचा रहा है’

बच्चों की खीर खाने में कोई ख़ास दिलचस्पी ना देखकर उसने दुबारा पूछा ‘बताओ?’

छोटा बेटा बोला, हम ना, टिंकू के धल गये ते।

बीवी की अन्दर से आवाज़ आई ‘कौन? पटनायक जी का बेटा टिंकू।’

हाँ वही तो, उतकी मम्मी ने दाजर ता हलवा बनाया था, बला स्वाद हलवा था, हम तो पेट भर ते थाके आये।

‘लो, पटनायक जी की श्रीमती ने तो यहाँ भी रायता फैला दिया’ कबसे अपने मूड को शांत रखने की चेष्टा को दम तोड़ता देख उसने खुद ही से कहा।

उधर बीवी गुस्से से आग बबूला होकर बोली ‘हाँ, हाँ, खाओ अब अपनी खीर खुद ही’

वो अपना सा मुंह लेकर बेडरूम की ओर बढ़ चला और बिस्तर पर लेट गया।

अब बाहर से बस बीवी के बच्चों पर चिल्लाने की आवाज़, कुकर की सीटियों के बीच दब-दब कर आ रही थी।

कुछ ही देर में खाना परोसे जाने का संदेशा आया।

बच्चों का तो पेट भरा था, मियां बीवी टेबल पर खाने बैठे। पालकपनीर सच में ज़ायकेदार बना था पर अब श्रीमती की तारीफ़ में कुछ कहने का मन ना किया उसका। खाना ख़त्म हुआ, प्लेटें सिंक में रख दी गयी। 

अब क्या? क्या बीवी खीर परोसेगी? क्या उसका दिमाग शांत हुआ? क्या बच्चे सो गये? आज शाम का क्या प्लान? जैसे सवाल चुप्पी तोड़ने में मददगार हो सकते थे, पर मन को मार कर वो बीवी के अगले कदम का इंतजार करने लगा।

बीवी चुपचाप कमरे में जाकर सो गयी। उसका भी जी ना किया कि अकेले खीर खाये। वैसे भी खीर का आनंद तो साथ खाने में ही है।

फिर यहाँ-वहाँ लेटते-बैठते शाम हो गई। अगले हफ्ते से बच्चों के स्कूल खुलने को थे। उनकी स्टेशनरी, यूनीफॉर्म खरीदने का काम भी आज ही निपटाना था। शाम को चारों ने बाज़ार की ओर रुख किया। बच्चों की ज़रूरतों का सामान खरीदते रात के 9 बज गये। सभी को ज़ोरों की भूख लगी थी। बाहर ही एक अच्छे रेस्तरां में खाना खाया और थके हारे घर पहुंचे| थकान से बच्चे और मियां-बीवी अपने बिस्तर पर पड़ते ही सो गये। रात को जब उसने पानी की बोतल लेने के लिये फ्रिज खोला, खीर का बर्तन जस का तस पडा था। इतने उत्साह से सबके लिये लाया था वो शहर का बेहतरीन व्यंजन पर उसे किसी ने हाथ तक न लगाया।

अगली सुबह सात बजे दूधवाले के दरवाज़ा खटखटाने पर नींद खुली। उसने रोज़ की तरह दूध लिया और दरवाज़े के पायदान पर नज़र डाली। अबतक अखबार नहीं आया था। बिना अखबार पढ़े ना तो उसकी आँख पूरी खुलती थी ना ही चाय अच्छी लगती थी। तो अखबार वाले की राह देखते हुए वो मंजन मुंह में दबाए घर के आँगन में ही टहलने लगा। 

कुछ ही पलों में एक तेरह-चौदह साल के लड़के ने चलती साईकिल में एक हाथ से अखबार का रोल बनाया और दरवाज़े की तरफ़ फेंक आगे बढ़ गया| उसने फट से आगे बढ़कर अपना अखबार उठाया और वहीँ खड़े-खड़े आगे का पृष्ठ टटोलने लगा। इस दरमियाँ जब नज़र रोड पर गयी तो देखा लड़के की साइकल की चेन उतर गयी थी। बेचारा छोटा लड़का, अखबारों के बड़े झोले को संभालता चेन ठीक करने में लगा था। उसने अचानक लड़के को आवाज़ लगाई ‘इधर ले आ खींच के साईकिल, औज़ार है मेरे पास, चेन डालने में मदद कर देता हूँ तेरी।’

लड़का साईकिल खींचते-खींचते उसके घर के दरवाज़े तक लाया। उसने अन्दर जाकर अपने बेटे की साइकल के पास पड़े टूलबोक्स को उठाया और रसोईघर की ओर बढ़ा। फ्रिज़ से खीर का कटोरा निकाला।

दरवाज़े के पास खड़े लड़के को आवाज़ देकर अपने पास बुलाया और कहा ‘ये खा ले पहले, खीर है, तेरी साईकिल मैं देख लेता हूँ’।

साईकिल तो पांच मिनट में ठीक हो गयी| स्टैंड पर लगाकर उसने छोटे लड़के को ऐसे चाव से खीर खाते देखा जैसे इससे स्वादिष्ट चीज़ उसने पहले कभी नहीं खायी हो।  

यकायक ही बड़ी प्रसन्नता अनुभव हुई। इतना हल्कापन महसूस हुआ कि लगा मानो कल के दिन का सारा घटनाक्रम मस्तकपटल से उड़न छू हो गया हो। उसने सोचा शायद तभी सोहन हलवाई की दुकान के बाहर लिखा है

‘खीर वही जो, खाने से ज्यादा खिलाने में ख़ुशी दे।’


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