कच्चे अमरूद
कच्चे अमरूद
शहर के जल विभाग की इस बड़ी कॉलोनी के मुख्य द्वार से अंदर जाने पर विभाग का बड़ा दफ्तर है। पास ही में बना है क्लब हाउस जहाँ एक तरफ बैडमिंटन का नेट लगा है। दूसरी तरफ टेबल टेनिस के दो टेबल और एक पूल टेबल रखे हैं। पूल टेबल का उपयोग वहां के कर्मचारी दफ्तर के बाद पत्ते खेलने के लिए ज़्यादा करते हैं। रात 8 बजे के बाद क्लब हाउस अंदर से बंद करके कुछ साहब लोग जुआ खेला करते हैं और दिन के वक्त वहां विभाग के कर्मचारियों के बच्चों की शिरकत रहती है। वहीं से अंदर की तरफ जाती है एक सीधी सड़क। सड़क के दोनों ओर पंक्तिबद्ध एक ही तरीके से बने और एक ही रंग के डिस्टेम्पर से रंगे घर कुछ क्षण के लिए दफ्तरशाही और पदों के वर्गीकरण को दरकिनार करते हुए सभी को एकीकृत करते नज़र आते हैं। कॉलोनी के बीच में एक बड़ा मैदान है। ऊँचाई से देखने पर कोलोनी के घरों की श्रंखला किसी माला में गूंथे फूलों जैसी लगती है। दोनों तरफ क्वार्टर्स की क्यारियों से अटी उस बसावट के बीच बना है ये छोटा बंगला। कॉलोनी में ऐसे पांच बंगले हैं। बंगले बाकी डब्बों जैसे घरों से बड़े हैं। इन छोटे बंगलों में फुलवारियां है जिन्हे रोज़ माली आकर सींचते हैं। क्यारियों वाले ये सजीले घर विभाग के उच्च व उच्चतम अधिकारियों के हैं।
इस बीच वाले बंगले में दो फाटक वाला लोहे का दरवाज़ा है। फाटक के दोनों ओर बोगेनविलिया की टहनियां ऐसी गूंथी हुई है मानो शादी की सजावट का दरवाज़ा। उसपर लगा है आधे गोले की सांकल वाला लॉक, जिसको उठा कर गेट के दोनों सिरों में फंसाते ही ‘खट्ट’ की आवाज़ के साथ दरवाज़ा बंद हो जाता है और उसे ऊपर करने से तेज़ आवाज़ के साथ खुलता भी है । तभी घर की डोर बेल बजने से पहले ही किसी आगंतुक के आने का आभास हो जाया करता है। अंदर घुसते ही समतल टाइल्स हैं और अच्छा खासा बड़ा चबूतरा है। वहां पहले लकड़ी के चार मुढ्ढे और एक टी टेबल पड़ा रहता था जहाँ सुबह की चाय पी जाती थी। अभी सारा चबूतरा पतझड़ के पत्तों से भरा है। लगता है काफी समय से माली नहीं आया।
चबूतरे की बायीं ओर बंगले की बगिया है जो उसका मुख्य आकर्षण है। बगिया में क्यारियां हैं और क्यारियों में तरह तरह के फूल लगे हैं। खासकर सफ़ेद-लाल गुलाब, मोगरा और हिबिस्कस भी। मोगरे का सफ़ेद पौधा, सुर्ख लाल रंग के हिबिस्कस के साथ विषमता से रोपा गया है बिलकुल वैसे ही जैसे लाल और सफ़ेद गुलाब की क्यारियां। लाल-सफ़ेद रंग के फूलों का विभेदन बगीचे को बेहद चित्रमय बना देता है।
बंगले के दायीं तरफ गाड़ियां और साइकिल रखने की जगह है जिनपर कोने में खड़े घने से अमरुद के पेड़ के पत्ते पड़ते रहते हैं। घर पिछले पांच वर्षों से खाली है। गाड़ियां, कुर्सी-टेबल, चाय के कप, सब नदारद हैं पर अमरुद के गिरे हुए पत्ते अब भी सब जगह बिछे हुए हैं। जैसे किसी भी इंसान की विशेषता उसकी हरकतों, या तकिया कलामों या रहन-सहन के तरीकों से निकाली जाती है वैसे ही पेड़ों, जानवरों और अन्य न बोल सकने वाली चीज़ों की विशेषता सिर्फ उनकी सुंदरता या उनसे होने वाले किसी फायदे से निकाली जाती है। तो इस पेड़ के अमरुद बहुत मीठे हैं। बल्कि कच्चे अमरुद पके वालों से भी ज़्यादा स्वादिष्ट हैं।
पहले घर भरा होने से कोई आसपास ना फटकता हो, पर अब कॉलोनी के कर्मचारियों के बच्चे स्वच्छंद भक्षकों की तरह टहनियों पर चढ़कर कच्चे अमरूदों का लुत्फ उठा रहे हैं।
मुझे नहीं पता था कि बगीचे की क्यारियों के ये रंगीन फूल, अमरूदों का मौसम, घर की चार दीवारी, खुली छत, कुर्सी- टेबल, चबूतरा मुझे मानसिक रूप से प्रभावित कर सकते हैं। मैं इन सब महत्वपूर्ण चीज़ों के सहवर्ती होकर भी उनकी महत्ता को समझ नहीं सका। न जाने कितने और भी लोग होंगे जो पर्यावरण को नज़रअंदाज़ करके स्वयं को, अपने परिवार को, और अपने जैसे लोगों को ही अपने जीवन का हिस्सा मानते होंगे।
मैं भी उन्हीं लोगों में से था। जबतक मैंने ये आभास खुद नहीं किया। जबतक मैंने अपने आसपास की अव्यक्तिगत चीज़ों को अपना नहीं माना। कभी-कभी समय पर अनुभास की गयी बातें इंसान को जीवन का एक विशिष्ट हिस्सा खो देने से बचा लेती हैं।
आज से पांच साल पहले मैं इस परितंत्र का हिस्सा था और आज, बस एक मूक दर्शक हूँ जो सभी चरित्रों को अपना किरदार निबाहते हुए देख तो सकता है, पर तंत्र में शामिल नहीं हो सकता।
लोगों को एक दूसरे को भूलते तो सभी ने देखा है, पर क्या पेड़-पौधे, अचल चीज़ें भी समय के साथ बंधन और जीवंतता छोड़ती चली जाती है?
आज पांच वर्ष हो गए मुझे इस घर को छोड़े। मेरे यहाँ से जाने के बाद कोई और अफसर यहाँ आया नहीं। मेरे लिए अब भी इस पेड़ के अमरूद, बगिया के फूल, घर के अंदर की दीवारों के रंग और आबो-हवा का एहसास ताज़ा सा लगता है। काश मैं अंदर जाकर उस पेड़ से को वापस छू सकूं, चबूतरे पर बैठ कर पुरानी यादें ताज़ा कर सकूं, फूलों को निहार सकूं। वो फूल जिनकी खुशबू घर के अंदर तक महका करती थी। पत्ते गिरने की सरसराहट और किसी के आने पर लोहे के दरवाज़े के खुलने की वो आहट! कुछ ऐसी आत्मीयता थी इस घर से जो इतने साल गुजरने के बाद भी दिलोदिमाग में किसी और जगह को ऐसा स्थान न दे सकी।
बड़ी नौकरी, बड़ा रुतबा, बड़ा घर, नए लोग, नया परिवेश, नयी आबोहवा, नए दफ्तर के रोमांच ने मुझे कुछ समय के लिए अपनी प्रतिभा और प्रगति का ज्ञान ज़रूर कराया पर मैं वैसा खुश और परिपूर्ण कभी न रह सका जैसा यहाँ था। यहाँ की बात बहुत अलग थी। यहाँ बिताये सात साल मेरे जीवन की अच्छी स्मृति का पूरा स्थान घेरे हुए हैं। जब यहाँ था तो खुश था, पर लगता था कि संतुष्टि कहीं और है। मुझे और बड़ी नौकरी करनी थी। और पैसा कमाना था। बेटे और पत्नी को और आरामदायक जीवन देना था।
अब नौकरी से संतुष्ट हूँ, पर खुश नहीं हूँ।
भीतर से कुछ ऐसा टूट गया है जो वापस पहले की तरह नहीं जुड़ सकता। कितना मना किया था बीवी और बच्चे ने कि उन्हें किसी और शहर नहीं जाना। बेटे के दोस्त यहाँ थे, अच्छा स्कूल था, सुन्दर सी कॉलोनी थी, प्यारा घर था, सरल और शांत लोग थे, सबकुछ अनुकूल था। पत्नी भी बड़े शहर में नहीं बसना चाहती थी। उसे ये छोटा शहर और यहाँ की जीवन शैली रास आ गयी थी। पर मैं अपनी इच्छाओं के बोझ तले दबा एक ऐसा आदमी था जो बेहतरी की चाह तो रखता था पर समझ नहीं सका कि बेहतर क्या होता है?
हमारे यहाँ से जाने के बाद कितने महीनों तक बेटा मायूस रहा। उसे पुराने दोस्त, पुराना घर कितना याद आता था। पर अब उसके पास नए तरीके से जीने और परिवर्तन को स्वीकार करने के अलावा कोई और चारा न था।
पत्नी की तबीयत दिन ब दिन बिगड़ती चली गयी। उसपर बड़े शहर के वातावरण का प्रतिकूल प्रभाव पड़ा था। वो अपनी सोच में धंसती चली जा रही थी। उसका हंसना-बोलना कम और अकेलापन बढ़ता गया। कॉलोनी के क्वार्टर्स की महिलाओं जैसी कोई मिलनसार दोस्त नहीं मिल पायी उसे। वो सुस्त रहने लगी थी और मैं बस दिन-रात काम में मशगूल।
नया घर सभी सुख सुविधाओं से लैस एक ऊंची बिल्डिंग में था। ऐसी बिल्डिंग जहां से सुन्दर समंदर का नज़ारा दिखता था, पर वहां जाने का कभी मन न करता। वहां ना तो पुराने घर जैसी बगिया थी और ना ही कोई अमरुद का पेड़। वहां लोग ही लोग थे, पर अपना कोई न था। वहां अच्छा फर्नीचर था, पर चबूतरा नहीं था। वहां ज़िन्दगी अलग थी, मज़ेदार नहीं ।
बेटा धीरे धीरे अपने स्कूल में रमता गया और शहरी रंग में ढल गया। पर मैं और वो अब भी वहीं थे। हम दोनों का मन वहीं बसता था। फर्क ये था कि मेरी पत्नी इस बात को बार-बार कहती चली गयी और मैं स्वीकार ही नहीं कर पाया था।
छुट्टी के दिन तो सन्नाटा सा पसरा रहता था। हम जब भी साथ बैठते बातें बहस में ही ख़त्म होती। अब यहाँ के घर जैसी चाय की चुस्की के साथ एक दूसरे की चुटकी लेने वाली बातें वहां नहीं होती थी। बाहर लगे मुढ्ढों की जगह आलिशान सोफे ने ले ली थी और पेड़ की हवा की खानापूर्ति एयर कंडीशनर कर रहा था।
चीज़ें जितनी बढ़ रही थी अनुभव उतने ही कम होते चले जा रहे थे।
बहुत उतार चढ़ाव देखने के बाद समझ आया कि आगे बढ़ तो गए थे, पर पीछे भी कुछ छूट गया था।
जीवन में कई मर्तबा इंसान ये निर्धारित नहीं कर पाता कि आगे बढ़ने का मोल पीछे छूटने वाले जीवन से ज़्यादा है या कम। ये नहीं समझता की आगे बढ़ना एक अंधी दौड़ का हिस्सा बनने जैसा है जिसमें अनेकों लोग शुमार हैं, पर मंज़िल सबकी एक नहीं है । दरअसल मंज़िल वो ही होती है जो इंसान खुद तय करता है अपने लिए। क्यूंकि ये भी ख़ुशी पाने की ही एक सीढ़ी है, और यदि हमें कहीं ख़ुशी मिल रही है तो वो ही हमारी मंज़िल है।
पुरानी यादें ताज़ा करता आज मैं फिर आ खड़ा हुआ हूँ इस घर की चौखट पर। ये सोचकर कि शायद मैं ये नौकरी नहीं छोड़ता तो मैं यहीं इसी छोटे बंगले में रहता। सुबह का अखबार चबूतरे के मूढ़े पर अपनी पत्नी के साथ इत्मीनान से बैठकर पढ़ता। ओहदा थोड़ा कम होता पर मित्र ज़्यादा होते। छोटी कार होती पर उसमें सैर करने में ज़्यादा मज़ा आता। एक क्लिक पर आर्डर करते ही फलों की टोकरी घर तक तो ना आ पाती पर कच्चे अमरूदों का बेहतरीन स्वाद ज़रूर मिलता।
खैर, नयी सच्चाई को अपनाकर आगे बढ़ना तो होगा, पर इस जगह को छोड़ने के बाद जीवन को अत्यधिक विश्लेषित करके जीने की आदत अब छूट सी गयी है। लगने लगा है कि जो उस समय में सुकूनदायी है वही अच्छा है। जहाँ चार पल ख़ुशी से कटें, वही उस दिन की उपलब्धि है। अच्छा वातावरण ही अच्छी दुनिया है। उसी में बेहतर कल तलाशा जा सकता है लेकिन बेहतर कल की चाह में अच्छा वर्तमान नहीं त्यागा जाता।