Khushboo Avtani

Drama Thriller

3.0  

Khushboo Avtani

Drama Thriller

मौत के बाद

मौत के बाद

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मेरे परिवार के लिये बड़ा ही मनहूस दिन होगा आज, ऐसे मातम की कल्पना तो मैंने भी नहीं की थी। भोर की शान्ति अचानक से रुदन विलाप में परिवर्तित हो गयी। रिश्तेदारों, पडौसियों का ताँता लग गया। मेरा छोटा भाई और चचेरे- ममेरे भाई एक के बाद एक सभी दूर-पास के लोगों को फोन लगाकर मेरी मृत्यु की सूचना देने में लगे हैं।

आज सुबह 8.45 पर मेरी मौत हो गयी, आख़िरकार उस भयंकर शारीरिक पीड़ा से छुटकारा मिल ही गया। मैं अपना शरीर त्यागकर ठीक हूँ, बहुत ही बेहतर स्थिति में, मेरी आत्मा और मेरा मन सही तालमेल में लग रहे हैं। गज़ब का हल्कापन महसूस हो रहा है। इतनी ख़ुशी शायद जीवित रहते हुये कभी महसूस नहीं हुई। मुझे गुज़रे हुए अभी सिर्फ एक घंटा ही हुआ है पर जिस पल मेरी मौत हुई, सब कुछ बदल गया। अपनी बीवी व 3 बच्चों को मेरी लाश के सामने बिलखता देख कुछ भी फ़र्क नहीं पड़ रहा। मेरी पत्नी रो-रोकर अधमरी हुए जा रही है पर उसे देख कर दया भी नहीं आ रही। मैं अपने घर का इकलौता कमाऊ इंसान था, मेरे बिना मेरे बच्चे और सीधी-साधी बीवी क्या करेगी, इन सब की चिंता से भी मुक्त महसूस कर रहा हूँ खुद को। मैं इस दृश्य और त्रासदी से बिलकुल आहत नहीं हूँ। धड़कन बंद होते ही दिल ने अपना काम करना छोड़ दियाष अब तो चाहकर भी दुखी नहीं हो पा रहा पर सुकून की बात यह है कि सब कुछ देख और समझ पा रहा हूँ बस महसूस करने वाली इन्द्रियां मर गयी हैं। 

जीवित रहते इतनी वेदना सहता था कि हर पल बस यही कामना रहती थी कि अब मरूं....अब मरूं....

काफ़ी समय से केंसर की पीड़ा भुगत रहा था, गत एक वर्ष से शय्याग्रस्त था। बीमारी के अंतिम पड़ाव पर बदन सूख कर काँटा हो गया था। किमोथेरेपी से चमड़ी काली पड़ गयी, दवाओं की शीशी चढ़ाने के लिए सुइयां घुसा-घुसा कर नसें सूख गयी। बाल नहीं रहे, मुँह में छाले पड़ गए। छह महीने से ऊपर बिस्तर पर पड़े-पड़े हाथ-पैर सुन्न हो गए थे।

भोजन, पानी, लोग, दीवारें, बिस्तर, कम्बल, मेज़, पंखा, मुझे कभी-कभी देखने आने वाले लोग, मेरे पेशाब की बाल्टी, खिड़की में रखा पानी का ग्लास, अलमारी के ऊपर रखी आयुर्वेदिक दवाओं की डिब्बियाँ, दूसरे कमरे से आती टी.वी की आवाजें, रोड़ पर चलते वाहनों का शोर, सब एक ही पायदान पर आ गए थे। किसी में भी भेद करना मुश्किल था, सजीव-निर्जीव सब बराबर हो गया था। आँखें खुल रही थी और साँसें चल रही थी बस। आख़िरी एक महीना सिर्फ पानी की कुछ बूंदों पर जिंदा रहा था मैं। ना जाने कब से पेट में जमा किया छुट-पुट ठोस मल में भी तब्दील नहीं हो पा रहा था, दुर्गति की पराकाष्टा यह थी कि खांसने पर मुंह से और मल करने की चेष्टा से गुर्दों से बचा खुचा खून बाहर आ जाता। ऐसे बुरे समय में कोई क्या जीना चाहेगा ? इसीलिए जीने की इच्छा तो जीते हुए ही छोड़ आया मैं। अब तो मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं है, एक बार फिर स्वतन्त्र हूँ मैं, सभी बंधनों से मुक्त, आह ! 

मेरे घर वाले पिछले एक घंटे से बिलख रहे हैं, सबके चहरे पर थकावट है। मेरी बीवी तो लगता है बस अब बेहोश ही हो जाएगी। मेरी वजह से पिछली कई रातें जगने व हर सुबह मेरी जड़ स्वरूप काया को देख-देख कर आँखें थक गयी थी उसकी। मुझसे बहुत प्रेम करती थी, पर क्या मुझे रोज़ इस हालत में पाकर मेरी मृत्यु की कामना न की होगी उसने ? खैर, मेरे क्रियाकर्म के बाद अब जाकर वो चैन से सोएगी। 45 वर्ष की उम्र मरने के लिए कम होती है पर दुनिया के हर परिवार की तरह मेरा परिवार भी संभाल ही लेगा ख़ुद को।

पहले ही क्या कम परेशान हुये वो आये दिन अस्पताल के चक्कर काटने में ? महँगी दवाइयों के खर्च ने बची खुची कमर भी तोड़ दी। मैं अपनी जमापूंजी को ऐसे नहीं गंवाना चाहता था, अच्छा हुआ जो समय पर मौत आ गयी। 

मेरा क्रियाकर्म करके वापस लौट रहे हैं सब...दोस्त, रिश्तेदार, समाज के लोग अब धीरे-धीरे ख़िसक रहे हैं। बीवी रो-रोकर आख़िरकार सो गयी। दोनों बेटियाँ फ़ोन में शायद अपने दोस्तों को मेरी मौत की इत्तिला कर रही है। काफ़ी देर से फोन से दूर बैठी थी दोनों, सब्र टूट गया शायद। आख़िरकार उठा ही लिया अपना-अपना फोन। सबसे छोटा बेटा रसोई में कुछ खाने को ढूंढ रहा है, सुबह से इस रोने-पीटने में भूखे पेट बैठा है बेचारा। जो करीबी रिश्तेदार हैं वे भी धीरे-धीरे विदा ले रहे हैं। किसी के बच्चों की परीक्षा है तो किसी के ऑफिस में बड़ा काम है इन दिनों, कोई मेरी वजह से पूरे दिन दुकान बंद रखने से हिचकिचा रहा है तो कोई वैसे ही बोर हो रहा है। मातम का माहौल भला किसे पसंद है ? जो मर गया उसके जाने पर समय ख़राब करके भी क्या मिलेगा ? लोग समझदार हो गए हैं, कम-स-कम मेरे घरवालों को मेरे अच्छेपन की याद दिलाकर उन्हें छाती पीटने के लिए मजबूर नहीं कर रहे।

वैसे देखा जाय तो उनका खिसक लेना ही ठीक है। दुनियादारी के चक्कर में बेचारे मेरे घरवाले ज़बरदस्ती आँसू बहाने को मजबूर हैं। आदमी सामाजिक है, कहने को समाज हमें एकता में बांधता है पर सच्चाई तो यह है कि सामाजिक होने का सही मतलब ही ‘औपचारिकता’ है। जैसे वे लोग जो एक समाज से जुड़े हैं वे दिल से उतने ही अलग हैं । तभी तो अन्दर की भावनायें कोई समझ नहीं पाता। हर भावना का प्रदर्शन करके दिखाना होता है। नहीं तो गम भी कोई प्रदर्शित करने की चीज़ है ? पचासों लोगों के बीच किसी अपने को खोने के गम में किसी अभिनेता की तरह चीखना-चिल्लाना, उस पूरी भावना को ही मलिन कर देता है, नाटक सा प्रतीत होता है

वैसे भी शाम हो गयी, आज के लिए काफ़ी है इतना, अब बाकी के आँसुओं की किश्त कल भी देनी हैं। लगातार 12 दिनों तक गम बचा कर रखना है, ताकि सामाजिक संतुष्टि के लिये रोज़ थोड़ा-थोड़ा पानी आँखों से गिराया जा सके। 

तो हाँ, ये तो बस मन को समझाने के तरीके हैं कि मरे हुये को जलाने के बाद उसकी आत्मा शांत हो जाती है। आत्मा तो उसी के आस-पास रहती है जिसे वो बहुत चाहता हो।

चलो घर का एक चक्कर लगा लूं, मेरा दराज़, कितना साफ़ है, ये सोफ़ा, जिस पर ऑफिस से आने के बाद चैन की सांस लेता था मैं।

मेरा कुत्ता, इसे भी समझ आ गया है मैं अब नहीं रहा, कल रात से ही मायूस पड़ा है किसी कोने में। मेरी पेन्स का कलेक्शन, कितना पसंद था मुझे तरह-तरह की कलमें जमा करना। मेरा चाय का कप, मेरी पसंदीदा शर्ट, मोर्निंग वाक वाला पार्क, मेरी शादी का एल्बम और मेरे बेड-रूम में पड़ी ये। मेरी अब भी चमचमाती मेन ऑफ़ द मैच की ये ट्रॉफी ! मेरे जीवन का सबसे बेहतरीन क्षण था वो। इससे जुड़ा हर एक दृश्य इतना जीवंत है आँखों में कि लगता है जैसे कल की ही बात हो। 

वैसे मरे हुए को भूलने के लिए 12 दिन तो बहुत होते हैं। संभावना है कि मेरे अपने कुछ महीनों में भूल जायेंगे मुझे, पर मैं, मेरा बसेरा यहीं है, इसी घर में, अपने कमरे के शो केस में रखी इस ट्रॉफी में, तब तक, जब तक इसे यहाँ से उठाकर कहीं और न फेंक दिया जाय...! 



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