बिजनौर टू गोवा
बिजनौर टू गोवा
२२ अप्रैल २०१० को पोने सात बजे दिल्ली की बस मिली। मुझे प्रकृति से बेहद लगाव है, बहुत सुना था गोवा की खूबसूरती के बारे में,अब अवसर मिला है महसूस करने का। इस बार मैंने कोई सपना नहीं देखा था, कोई आस नहीं लगायी थी इस टूर से। अक्सर मेरे साथ ऐसा होता है जो सोचती हूँ वो नहीं होता इसलिए बस खुद को छोड़ दिया भगवन के भरोसे, जो होगा देखा जायेगा।
पहली बार इतना लम्बा सफर वो भी अकेले जाने क्या होगा बस यही सोच मैं खिड़की से बाहर देखने में व्यस्त थी। कुछ सीखना था ज़िंदगी से, कुछ समझना था ज़िंदगी को। लगभग साढ़े ग्यारह बजे दिल्ली पहुँचे वहाँ स्टेशन पर मेरा भाई विकास इंतज़ार कर रहा था। विकास को देखते ही सब टेंसन ख़त्म हो गयी और अब मैंने खुद को फ्री कर लिया था यात्रा का आनंद लेने के लिए। मेरे पास एक छोटा बैग था उसे भी भाई को पकड़ा मैं छोटी बच्ची बन गयी जो भाई का हाथ पकड़ सिर्फ अपनी दुनिया में खोयी थी। तीन बजकर पाँच मिनट पर हमारी ट्रैन रवाना हुई गोवा के लिए।
रेल कोच में कौन है, क्या कर रहा है मुझे, कोई मतलब नहीं, मैं तो बस अपनी दुनिया में मस्त। कहीं ऊँची बिल्डिंग, कहीं नयी तकनीक से सुसज्जित मॉल, कहीं हरियाली, सरसों के खेत, गन्ने के खेत, झील में बहता पानी, सड़कों पर दौड़ती ज़िंदगी, सब दृश्य गति के साथ आँखों के सामने से गुजर रहे थे। कहीं कुछ बदनसीब सड़क के किनारे चिलचिलाती धूप में नंगे पाँव, इस दुनिया से बेखबर सो रहे थे, कुछ बच्चे जिन्हें शायद ये भी नहीं पता बचपन क्या होता है। कूड़ा बीन रहे थे।
ज़िंदगी का एक रंग ये भी था। किसी के पास इतनी धन दौलत कि उसे चिंता के मारे नींद न आये, किसी के पास इतनी रोटी उसे पचने के लिए हाजमे की गोली लेता है। किसी को एक वक़्त की रोटी भी न नसीब, वाह रे ऊपर वाले क्या खूब है तेरी दुनिया।
हमारे साथ एक फेमिली जो शिरडी जा रही थी उन्हें कॉपर गाँव उतरना था और एक तमिल फैमिली भी थी जिसमे सिर्फ एक लड़की को ही हिंदी आती थी। वो ही हमारी बातें समझ रही थी और उनका उत्तर दे रही थी। कमर दर्द होने लगा था बैठे हुए। बाहर देखते हुए कब सोयी याद नहीं। अगली सुबह एक और सहयात्री अदिति हमसे जुड़ चुकी थी। मेरी हम उम्र थी और बातूनी भी। फिर तो हम दोनों की खूब जमी। भोपाल से भी कुछ साहित्यकार चढ़े, हम सभी एक ही सम्मलेन में जा रहे थे संयोग से। अब सफर में आनंद आ रहा था। एक कवि अशोक कुमार अनुज बाते भी तुकबंदी में कर रहे थे। विकास की उनसे खूब जमी वो भी तुकबंदी में शामिल हो गया। एक कवि अंकल राजेंद्र जोशी ने अपना काव्य पाठ सुनाया शुभकामनाएँ दी।
"अदिति तुम मेरी दुनिया में चलोगी, बहुत सुंदर है मेरी दुनिया। मेरी सपनीली दुनिया इस खिड़की से बाहर शुरू होती है। वहाँ सिर्फ प्यार ही प्यार है। बस प्यार, न कोई दिखावा न कोई चालाकी। बस कुछ समय के लिए तुम भूल जाओ तुम क्या हो ?"
"मंजूर है।"
तो आओ मेरे साथ देखो यह अनंत आकाश हमें बुला रहा है। ये पौधे, फूल दूर जहाँ तक तुम्हारी नज़र जाती है। देखो दूर वहाँ आसमान धरती से मिल रहा है। सब कुछ शुन्य सफ़ेद। धरती आकाश का भेद ख़त्म। एक नीली सी चादर दिखाई दे रही है। ये ऊँचे ऊँचे पहाड़ पेड़ों से ढके हुए यहाँ की हवाओं में मधुर संगीत है। ये पंछी कितनी उन्मुक्त से उड़ रहे हैं। ये पेड़ -पत्ते, फूल, ये वादियाँ, हमें बुला रही हैं। आओ देखो ज़िंदगी कितनी खूबसूरत है। पहाड़ से फूटता झरना, ऊँची-ऊँची चट्टानें, दूर तक फैले हरे मैदान, दूर उस चोटी पर खड़े होकर ,बाहें फैलाये इन बहारों का स्वागत करो।
"ए जिंदगी गले लगा ले---" यहाँ हम सब कुछ कर सकते हैं। ये असीमित आकाश मेरा है। ये पेड़ पौधे, ये खूबसूरत नज़ारे मेरे हैं। है न मेरी दुनिया खूबसूरत। मेरी दुनिया में प्यार ही प्यार है। मासूमियत है, सादगी है, यहाँ हमे रोकने टोकने वाला कोई नहीं है। देखो ये समुद्र कितना विशाल, इसकी गहराई से डर भी लगता है लेकिन इसका लहराना, उछलना सबको अपनाना अच्छा लगता है।
"पर तभी उसकी मम्मी ने आकर हमारे सपनों की दुनिया में ब्रेक लगा दिया।
"तुम दोनों उधर मेरी सीट पर जाओ। सामान का ध्यान रखना, मैं अभी आती हूँ औरो से मिलकर।"
हम दोनों आज्ञाकारी बच्चों की तरह वहाँ से चल दिए। बड़ा अजीब लग रहा था फिर से इस दुनिया के शोर-शराबे में आकर।
"थोड़ी देर किताब पढ़ी इधर उधर देखा। सब अपने में मस्त।" अदिति चलो यहाँ से मन नहीं लग रहा। यहाँ दृष्टि का परावर्तन हो रहा है। यहाँ का क्षेत्र सीमित है। ये दीवारें हमारी सोच हमारे सपनों को उड़ने से रोक रही हैं। चलो अपनी सीट पर चलते हैं। "पर यहाँ से भी हम बाहर का मौसम देख सकते हैं।"
देख सकते हैं पर जितना गैप उस खिड़की और हमारे बीच है उसमे ये स्वार्थी दुनिया, झूठ, चालाकी, दिखावे की बातें एक पर्दा बन गयी हैं, जहाँ से हमारी दुनिया दिखाई तो दे रही है पर धुंधली सी तस्वीर। अगर हम ज़्यादा देर यहाँ रुके तो हम भी इनकी बातों में शामिल हो जायेंगे। यहाँ तो ऐसा लग रहा है जैसे हमारी उड़ान सीमित कर दी गयी हो, बस इन दीवारों से बाहर कुछ नहीं सोचना। मैं अपनी उसी अनंत विस्तार वाली सपनीली दुनिया में जाना चाहती हूँ। " विकास को भेज देते हैं यहाँ। और हम दोनों अपनी सीट पर आकर गाते है -मंजिल से बढ़िया लगने लगे हैं ये रस्ते ---".
अंताक्षरी खेलते खेलते अँधेरा होने लगता है। सब खाना खाकर सो जाते है। सुबह आँख खुलती है वास्को स्टेशन गोवा। मंजिल तो आ गयी थी लेकिन सफर ज़िंदगी का अभी बाकी था आगे की कहानी अगले अंक में ---