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सूबेदार योगेंद्र सिंह यादव

सूबेदार योगेंद्र सिंह यादव

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सूबेदार मेजर योगेंद्र सिंह यादव जी ने मात्र 19 बरस की आयु में कारगिल युद्ध में तोलोलिंग तथा टाइगर हिल फतह की थी।

वे भारतीय सेना के एकमात्र सैनिक हैं जिन्हें जीते जी सेना का सर्वोच्च सम्मान परम वीर चक्र मिला है।

कारगिल युद्ध का वीर सिपाही...


नेशनल हाइवे १ अल्फ़ा से एकदम सटी तोलोलिंग पहाड़ी पर चढती ग्रेनेडियर्स बटालियन जो कश्मीर में तैनात थी, को कारगिल युद्ध के चलते द्रास सेक्टर में डिप्लोइड कर दिया गया था। पन्द्रह दिन पहले घर में गूंजती शहनाई और विवाह के गीतों की ख़ुशियों के बीच योगेन्द्र ने सोचा भी न था कि २० मई को जम्मू में ड्यूटी पर वापस आने की रिपोर्टिंग करते ही तोलोलिंग पहाड़ी पर कूच का आदेश हो जायेगा। फिर भी देश तो पहले है योगेन्द्र तुरंत अपनी बटालियन के साथ रवाना हो गये, द्रास सेक्टर की पहली पहाड़ी- तोलोलिंग की तरफ। पाकिस्तानी सैनिकों ने नेशनल हाइवे- १ को पूरा ब्लोक करके रखा हुआ था ताकि भारतीय सैनिको की कोई लोजिस्टिक सपोर्ट आगे की तरफ न जा सके। कमांडिंग ऑफिसर कर्नल कुशल चन्द्र ठाकुर ने हमले की रणनीतियां बनाई और उन रणनीतियों के तहत १८ ग्रेनेडियर्स बटालियन ने जब तोलोलिंग पर चढाई आरम्भ की तो मौसम बहुत ज्यादा खराब था। एक मीटर आगे तक का भी कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। सैनिकों के लिए ये बड़ी ही परेशानी वाली बात थी। पहाड़ी पर जल्दी पहुँचना बहुत जरूरी था लेकिन खराब मौसम और तीन फीट से आगे का कुछ भी दिखाई न देने की वजह से तेजी से आगे बढ़ नहीं पा रहे थे। तीस पर अचानक ही दुश्मन से सामना हो जाने का ख़तरा। लेकिन भारतीय सैनिकों ने कब विपरीत परिस्थितियों से हार मानी है, कब कोई बाधा उनका रास्ता और बढ़ते कदम रोक पाई है। मन ही मन भारत माता की जय का उद्घोष करते योगेन्द्र अपनी ग्रेनेडियर बटालियन के साथ आगे बढ़ते जा रहे थे। उन्नीस बरस का युवा लहू रगों में जोश भर रहा था।

एक रात और एक पूरा दिन बटालियन उतने ही खराब मौसम में बिना थके, बिना हार माने पहाड़ी पर चढ़ती रही तब जाकर कहीं मौसम साफ़ हुआ। तब तक योगेन्द्र और उनकी बटालियन दुश्मन के बहुत करीब तक पहुँच चुके थे। दुश्मन की भी नजर पड़ गयी कि यहाँ तक भारतीय फौज पहुँच गयी है। बौखलाए पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय फौज पर अंधाधुंध गोलियाँ बरसाना शुरू कर दिया और उन्हें आगे बढने से रोकने लगे। फौज को मजबूरन वहीं रुकना पड़ा। कमांडिंग ऑफिसर ने दो कम्पनियों को दो अलग दिशाओं से आगे बढने का आदेश दिया ताकि दोनों तरफ से दुश्मन पर मल्टीपल अटैक करके उसकी ताकत बटे और अपनी फौज को आगे बढ़ाने और जीतने का रास्ता बनाया जा सके।

वहाँ आतंकवादियों के होने की खबर भी थी। स्थितियां इस खबर से और भी अधिक कठिन हो गयीं थीं। एक तरफ दुश्मन सैनिक दूसरी तरफ आतंकवादी। दोनों ही एक समान दुर्दांत। दोनों में कोई भेद नहीं। २८ मई को भारतीय वायुसेना का एक हेलिकोप्टर भी उस पहाड़ी पर गिरा दिया गया। पता चला वहाँ आतंकवादी नही सिर्फ दुश्मन की फौज ही है। तब ओपरेशन विजय लॉन्च किया गया। उस पहाड़ी पर योगेन्द्र की बटालियन के दो ऑफिसर, दो जूनियर कमिशन ऑफिसर, और इक्कीस सैनिक शहीद हुए तब १२ जून १९९९ को पहली सफलता के रूप में तोलोलिंग पहाड़ी पर भारत को विजय प्राप्त हुई।

अभी इस विजय का सेहरा बटालियन के सर पर बंधा ही था की तभी आदेश मिला कि टायगर हिल पर कब्जा करना है। बटालियन कमांडर ने फिर दोबारा से प्लान बनाया कि सबसे पहले हमारी घातक प्लाटून उस पहाड़ी पर आक्रमण करेगी और आक्रमण करने के लिए उन रास्तों का प्रयोग करके उपर जाएगी जिन रास्तों से होकर पाकिस्तानी सैनिक सोच भी न सकें कि भारतीय फौज उपर आ सकती है। योगेन्द्र और उनके दो साथी, तीन ऐसे जवान थे जो पिछले २२ दिनों से लगातार चलते रहे। इस अनथक परिश्रम से बटालियन में तीनों की एक पहचान बनी कि ये तीनो शारीरिक और मानसिक रूप से बहुत मजबूत हैं। तब उन तीनो को घातक प्लाटून यानि कमांडो टुकड़ी में शामिल कर लिया गया। २ जुलाई को योगेन्द्र ने अपने साथियों के साथ उस पहाड़ी पर चढ़ना शुरू किया। तीसरे दिन अलसुबह एक दुसरे का हाथ पकड़कर रस्सियों के सहारे जब योगेन्द्र उपर चढ़ रहे थे, तभी दुश्मन ने टुकड़ी पर दोनों तरफ से हमला कर दिया। तेजी से गोलीबारी होने लगी और टुकड़ी का आगे का रास्ता ब्लोक हो गया। योगेन्द्र को मिलाकर कुल सात जवान ही उपर पहुँच पाए। उपर ७-८ मीटर लम्बा सपाट प्लेट्यू था। उपर पहुँचते ही योगेन्द्र ने अंधाधुंध ओपन फायर खोल दिया और पाकिस्तानी सैनिकों को सम्भलने, समझने का मौका ही नहीं दिया। दुश्मन के जितने सैनिक सामने थे सबको मौत के घाट उतार दिया।

दुश्मन की पीछे की टुकड़ी ने जब देखा कि हिंदुस्तान की फौज यहाँ तक पहुंच गयी है तो गुस्से से बौखलाकर योगेन्द्र के साथियों पर जबर्दस्त ओपन फायर खोल दिया। इतनी अंधाधुंध फायरिंग और बोम्बर्डिंग हुई कि योगेन्द्र को लगा अब मौत तो निश्चित है।

 तो मरने से पहले जितने अधिक से अधिक दुश्मनों को हम मार सकते हैं उतनो को मार दें। योगेन्द्र ने साथियों को ललकारा और सबने तेजी से अपनी-अपनी पोजीशन ले ली। अपनी पोजीशन पर डटे रहकर अगले पाँच घंटो तक यही लक्ष्य लेकर सातों भारतीय जवान दुश्मन से लगातार लोहा लेते रहे। जब गोला-बारूद बहुत कम मात्रा में बचा रह गया तो सामने एक विकट स्थिति खड़ी हो गयी। अब दूर से ओपन फायर करते रहना सम्भव नहीं रह गया था। सातों ने इशारों में आपस में तय किया कि अब दुश्मन को पास आने दिया जाये और जब वह पर्याप्त पास आ जाये तब उसे टारगेट करके गोली चलाई जाये। हिन्दुस्तानी सैनिक गोलीबारी बंद करके चुप बैठे रहे। करीब २०-२५ मिनट तक पाकिस्तानी सैनिक गोलीबारी करते हुए जवाबी हमले की राह देखते रहे। फिर दस-बारह पाकिस्तानी सैनिक भारतीय सैनिकों की तरफ बढ़े ये देखने की वे संख्या में कितने हैं और जिन्दा हैं या मर गये।

योगेन्द्र और उनके साथी तीन अलग-अलग पत्थरों के पीछे बैठे थे। जब पाकिस्तानी सैनिक काफी पास आ गये तो योगेन्द्र ने इशारा किया और सबने एक साथ फायरिंग शुरू कर दी। एक-दो पाकिस्तानी सैनिकों के अलावा बाकी सब मरे गये। योगेन्द्र और उनके साथी आगे की योजना पर कार्यवाही करते रहे।

आधे घंटे के बाद ही तीस-चालीस पाकिस्तानी सैनिकों ने उन पर हमला कर दिया। इस बार हमला खासा तगड़ा था। धमाकों की आवाज़ से पहाड़ी का सीना भी थर्रा उठा। बीस मिनट तक लगातार भीषण गोलीबारी होती रही पाकिस्तानी सैनिकों की ओर से। बीस मिनट बाद दुश्मन गोलीबारी बंद करके उपर से हिन्दुस्तानी सैनिकों पर पत्थर बरसाते हुए धीरे-धीरे उनके करीब आने लगा। उस समय योगेन्द्र की टीम के लीडर हवलदार मदन ने चिल्लाकर योगेन्द्र से कहा-

“योगेन्द्र इस LMG (लाईट मशीन गन) को उठाकर फैंक, आज दुनिया में इस वेपन के अलावा दूसरा कोई हमें बचाने वाला नहीं है।” 

योगेन्द्र ने तुरंत ही LMG को उठाकर हवलदार मदन की तरफ फेंका । तभी योगेन्द्र का ध्यान गया...। यमदूतों के समान सात पाकिस्तानी सैनिक ठीक उसी पत्थर के उपर खड़े थे जिसके नीचे योगेन्द्र और उनके साथी थे। उनके एक साथी पर दुश्मनों की नजर पड गयी और उस पर उन्होंने तीन तरफ से हमला कर दिया। एक ग्रेनेड उपर से आया और योगेन्द्र के साथी के पास ब्लास्ट हुआ। उसकी एक ऊँगली कट कर गिर गयी। बाकि साथी भी जख्मी हो गये। उन्हें जल्दी से फर्स्ट-एड दिया गया।

“योगेन्द्र और अनंत राम..। उसकी मदद को जाओ जल्दी..” प्लाटून हवलदार ने योगेन्द्र और उनके ट्रेनिंग साथी ग्रेनेडियर अनंत राम को पुकारा। 

योगेन्द्र तेजी से अपने साथी की मदद को लपका। योगेन्द्र के अपनी जगह से हिलने पर पाकिस्तानी सैनिकों का ध्यान उन पर चला गया। एक दुश्मन ने उन पर उपर से ग्रेनेड फैंक दिया। ग्रेनेड योगेन्द्र के पास फटा और उसका एक टुकड़ा सीधे उनके एक पैर में घुटने के नीचे आकर धंस गया। दर्द की एक तीव्र लहर घुटने से होकर पूरे शरीर में दौड़ गयी। दर्द इतना तेज था कि योगेन्द्र को लगा घुटने के नीचे से पैर शायद कट गया है। दर्द की तीव्रता में आँखे पल भर को बंद हो गयीं। जैसे-तैसे खुद को सम्भालकर आँख खोलकर देखा। पैर तो नहीं कटा था लेकिन ज़ख्म बहुत गहरा था, खून तेजी से बह रहा था। योगेन्द्र रेंगकर एक चट्टान की आड़ में छुप गये और फर्स्ट-एड बॉक्स निकालकर खुद ही फर्स्ट-एड लेने लगे ताकि दर्द कम हो तो दोबारा मोर्चा सम्भाल ले.

अभी वो फर्स्ट-एड कर भी नहीं पाए थे कि दुश्मन का फेंका हुआ एक और ग्रेनेड आकर फटा और उसका टुकड़ा योगेन्द्र के चेहरे पर आँख और नाक के बीच बहुत गहरे तक धंस गया। अब की बार उन्हें लगा कि उनकी आँखे ही चली गयी। चेहरा बिलकुल शून्य हो गया था। बहुत देर तक आँखे खोलने की कोशिश करते रहे योगेन्द्र लेकिन आँखे नहीं खुली। जब बहुत देर बाद जैसे-तैसे आँखे खुली तो देखा वो सर से पैर तक पूरा खून में नहाये हुए थे। नाक से खून की धार बह रही थी। दर्द से सर भी घूम रहा था।

“सर दोनों बन्दों को गोलियाँ लगी हैं। कैसे हैं वो दोनों, ठीक तो हैं...” अपनी पूरी ताकत समेट कर योगेन्द्र ने प्लाटून हवलदार से पूछा.

“दोनों शहीद हो गये योगेन्द्र....” प्लाटून हवलदार ने पाकिस्तानी सैनिकों पर गोलियाँ दागते हुए जवाब दिया। दर्द से जूझते हुए योगेन्द्र प्लाटून हवलदार के पास पहुंचे-

“सर मेरा फर्स्ट-एड कर दो तो मैं भी मोर्चा संभालूं..”

“पहले फायर करते रहो...” उन्होंने कहा। 

योगेन्द्र दुबारा फायर करने लगे। कुछ देर बाद उनके साथी ने फील्ड पट्टी निकाली उनका फर्स्ट-एड करने के लिए और उसकी पोलीथिन फाड़ने के लिए मुँह तक ले ही गये थे कि तभी एक गोली सनसनाती हुई आई और सीधे उनके सर में लगी। वे वहीँ शहीद हो गये। योगेन्द्र सन्न रह गये। बगल में दुश्मन से लड़ रहे अपने साथी को बताया- “यार सर को तो गोली लग गयी है...”

“क्या...” साथी कुछ समझ पाता इससे पहले ही दुश्मन की एक और गोली आई और सीधे उसके सीने पर लगी। वह भी योगेन्द्र की गोद में गिर पड़ा। दुश्मन ने चारों तरफ से उनको घेर लिया था। उनकी आखरी उम्मीद LMG पर भी दुश्मन ने RPG का राउंड दागकर उसे भी बेकार कर दिया। दुश्मन चारों तरफ से आ चुके थे। शहीदों के बीच में योगेन्द्र भी लहुलुहान पड़े थे। दुश्मन की नजर में वे भी मर चुके थे। दुश्मन के कमांडर ने अपने सैनिकों से कहा कि इनको चेक करो कि इनमें से कोई जिन्दा तो नहीं है।

सैनिक एक-एक हिन्दुस्तानी सैनिक को दोबारा गोलियाँ मारने लगे। सबके साथ ही योगेन्द्र की बगल में तथा पैर में भी तीन-चार गोलियाँ मार दी। फिर बूट की ठोकरें मारी, लातें मारी। पाकिस्तानी सैनिक यूँ भी बर्बरता में जंगली पशुओं को मात देते हैं। सो यातना देने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। जितनी भड़ास निकाल सकते थे निकाल ली। योगेन्द्र चुपचाप पड़े सहते रहे। और कोई चारा न था। योगेन्द्र के पास अब भी एक हेंड ग्रेनेड बचा हुआ था। जैसे ही पाकिस्तानी सैनिकों को यह तसल्ली हो गयी की सारे हिन्दुस्तानी सैनिक मर चुके हैं वे सब वापस जाने लगे। योगेन्द्र ने चुपचाप अपना हेंड ग्रेनेड निकाला और उन पर फेंक दिया। ग्रेनेड एक सैनिक के कोट के हुड में जा कर अटक गया। इससे पहले की वो ग्रेनेड निकाल पाए वह फट गया और उसका सर उड़ गया। इस धमाके से दुश्मन के सैनिकों के बीच एकदम खलबली मच गयी। दुश्मनों को लगा की शायद भारतीय री-इन्फोर्समेंट आ गयी है। योगेन्द्र के लिए बस यही एक मौका था अपनी भारत माता के लिए कुछ विशेष कर गुजरने का। योगेन्द्र ने तुरंत लपककर उसकी रायफल को दोनों हाथों से उठाने की कोशिश की। लेकिन उनका एक हाथ तो हिला ही नहीं। उन्होंने अपने हाथ की तरफ देखा तो पाया की उस हाथ की सारी हड्डियाँ बाहर आ चुकी थीं। हाथ टूट गया था। उन्होंने एक हाथ से ही तब रायफल उठाई और फायर किया। उसी हालत में एक पत्थर से दुसरे पत्थर के पीछे लुढ़क कर दुश्मनों पर गोलियाँ बरसाते रहे। दुश्मनों को पक्का विश्वास हो गया की नीचे से भारतीय फौज की एक टुकड़ी मदद के लिए आ गयी है। तीन-चार दुश्मनों को वहीं मार गिराया। बाकी भाग गये। देर तक योगेन्द्र टोह लेते रहे दुश्मनों की लेकिन सब मैदान छोड़कर भाग गये थे।

फिर रेंगते हुए योगेन्द्र अपने साथियों की तरफ बढ़े। उन्हें उम्मीद थी की जैसे वे जिन्दा हैं उनका कोई न कोई साथी भी ज़रुर जिन्दा होगा। लेकिन अफ़सोस किसी में भी जान बाकी न थी। सब शहीद हो चुके थे। योगेन्द्र वहीं बैठकर बहुत देर तक रोते रहे। अपने आपको सम्भालते रहे। टूटे हुए हाथ की वजह से शरीर में कंपन होने लगा था। योगेन्द्र ने किसी तरह उस हाथ को बाँधने की कोशिश की लेकिन बाँध नहीं पाए। उन्हें लगा शायद हाथ कट गया है। उन्होंने हाथ को झटके से उखाड़ना चाहा लेकिन हाथ टूटा नहीं। आखिर उन्होंने उसे कमर के पीछे बेल्ट में फंसा लिया। बहुत देर तक वे वहीं बैठे सोचते रहे। जब ठीक से तसल्ली हो गयी की दुश्मन खदेड़ा जा चुका है तब योगेन्द्र के सामने समस्या थी कि इस हालत में पहाड़ी उतर कर अपनी फौज तक कैसे पहुँचा जाये। तभी जैसे ईश्वरीय प्रेरणा से उनके मन में किसी ने कहा की इस नाले में उतर जा। और उसी दिव्य शक्ति ने उन्हें हिम्मत दी। घुटने तथा चेहरे पर ग्रेनेड के गहरे घाव, और शरीर पर पन्द्रह गोलियाँ लगने के बाद भी चेतना अभी लुप्त नहीं हुई थी। कंधों पर आगे और भी जिम्मेदारियाँ थीं।

अपनी पूरी शक्ति एकत्र करके योगेन्द्र ने खुद को उस नाले में लुढ़का दिया और लुढ़कते हुए ही नीचे उतरने लगे। बहुत नीचे उतरने पर सामने एक गड्ढा आ गया। उसी गड्ढे में से योगेन्द्र ने नीचे देखा तो उन्हें अपने साथी दिखाई दिए। योगेन्द्र ने उन्हें आवाज लगाई। कुछ साथी तुरंत उपर आये और योगेन्द्र को वहां से निकालकर ले गये। योगेन्द्र ने उन्हें सारी वस्तुस्थिति से अवगत कराया। तुरंत उनकी बटालियन वहाँ पहुँच गयी। दुश्मन तो पहले ही भाग चुका था। लिहाजा बिना कोई सैनिक के हताहत हुए ही भारतीय सैनिकों ने टायगर हिल पर तिरंगा फहरा कर अपनी जीत दर्ज कर दी। टायगर हिल की जीत का कारगिल युद्ध विजय में बहुत बड़ा हाथ था। एक तरह से यह विजय का शंखनाद ही थी। 

योगेन्द्र दिल्ली के बेस अस्पताल में सोलह महीने एडमिट रहे। लेकिन देशभक्ति का ज़ज़्बा ज़रा भी कम नहीं हुआ। ठीक होते ही पुनः सेना में ही शामिल हुए। तो आज तक उसी निष्ठा से सेना में रहकर देश की रक्षा के प्रति प्रतिबद्ध हैं। अपनी बहादुरी के लिए योगेन्द्र को परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया। 



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