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डिलक्स सिगरेट

डिलक्स सिगरेट

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सुबह का समय, दिसंबर का अन्तिम सप्ताह। हल्की सी धुंध। दिल्ली की ओर से रेल आकर रुकी। सवारियाँ, प्लेटफार्म- विक्रेता, रेल कर्मचारी आदि सभी इस आवेग से स्वचालित हुए जैसे बटन दबाते ही, कोई विडियोगेम गतिमान हो गया हो। केवल हम से, कुछ नियमित यात्री शान्त खड़े थे।

सी-सी करते, हाथों को आपस में रगड़ते हुए, एक नवयुवक ने आवाज दी। 'ओ बाबा' बाबा हाजिर ! 'क्या दूँ साब?' 'सिगरेट दे, कौण सी है ?' 'जि पन्द्रह की दो और जि....' इतनी महंगी, कै परसेन्ट प्रॉफिट लेवैगा भाई.... और यो है कौण सी' विक्रेता के थैले को कुरेदते और अपनी ठंडी उंगलियों को गरमाहट पहुंचाते हुए, 'चल यो दे, कितणे की सै ?'

'दस की साब' 'अच्छा, आगे की गिणती ना आवै तनै !'

'इतनेई में परति है हमें'

उसने एक सिगरेट ली और थैले में पड़ी माचिस से जला, पहले कश के धुँए की बारिश, बेचारे विक्रेता के आसपास करते हुए, 'यो लै दस कौ नोट, कम पडै तो बता दियो।'

उसने 'सिगरेट, गुटका,अम्बर' कह मध्यम स्वर में आवाज लगाई, फिर दस रुपये छाती की जेब में ठूंसते और 'कबहु कबहु तौ जि सौ की हू पड़ जात है ?'

बड़बड़ाते हुए वह अनाधिकृत विक्रेता बगल के स्लीपर क्लास के डिब्बे की ओर बढ़ गया।

स्टेशन नियंत्रण कक्ष द्वारा, सूचक यंत्र पीला करते ही, गार्ड ने सीटी बजा दी। प्लेटफार्म की कुर्सियों पर, तिरछी टेड़ी टाँगे कर खड़े- बैठे लोग हरकत में आ गए।

'क्यूँ छोरे, बेरा नहीं कै, स्टेशन पै धूम्रपान कतई वर्जित है और टिकट भी है कि नहीं...'

'सर मैं...' 'सामान हो कोई तो उतार लै, आ जा।'

'अरे साब, वो बस...'

'इब तू बस तै ही जाना, गाड़ी नै जाण दे।'

कानून का एक लम्बा हाथ, उस नौजवान की जैकेट का कॉलर पकड़ चुका था।

'चालान काटना पड़ेगा, दो सौ रूपये का।' 'सर कुछ क...' उसे बोलते हुए खाँसी आ गई, इस दौरान कई लम्बे कश जो खींच चुका था।

फिर वह अपनी टाइट जीन्स की जेबों में पैसे टटोलने लगा। जिसमें दस-बीस रुपये ही नजर आ रहे थे।

'देख, अपणा समझ के छोड़ देता हूँ, बहस करी तौ खामखाँ चार-पाँच सौ बिगड़ जावेंगे !

दिना खोवेगा सो अलग।'

झटपट उसने लाल जैकेट की अंदर वाली जेब से हरा नोट निकाल कर ऐसे दिया मानो किसी निकटतम रिश्तेदार को विदाई। कानून की पकड़ कंधे से ढीली होते-होते, रेलगाड़ी की गति बैलगाड़ी से तेज हो चुकी थी। शीघ्रता के साथ वह डिब्बे में चढ़ा और अपनी मुंडी घुमाकर कानूनदार को 'थैंक्स' इस आभास से कहा कि उसके अपनेपन के कारण ही जमानत मिली हो। कई यात्री मिलेजुले सुर में कह-पूछ रहे थे,

'किसलिये पकड़ लिया था भाई ?'

निरुत्तर। उसने खत्म होती सिगरेट को गम्भीरता से निहारते हुए, लम्बी साँस के संग गटका। 'वाह री डीलक्स सिगरेट' जैसे शब्द उसके मन में डोल रहे थे।


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