भूख, धर्म और नशा

भूख, धर्म और नशा

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धर्मा शाम को टहलने के विचार से घर से निकला। बायीं ओर जाती सड़क पर कुछ दूर किसी धार्मिक अनुष्ठान की तैयारी हो रही थी ऐसा वहाँ बजते हुए लाउडस्पीकर के शोर पता चल रहा था। धार्मिक प्रवृत्ति होने के कारण अचेतन मन ने पर्स में से एक हरा नोट झपट लिया और प्रयोजन की जिज्ञासा लेकर कदम उस दिशा में आगे बढ़ गए।

किन्तु नजदीक पहुँचने से पहले ही मन खिन्न हो गया। हुआ ये कि शायद अमुक कार्यक्रम रात्रि में शुरू होना हो, अतः स्थानीय समाज के लोग तो अभी कम थे, गाने, बजाने, सजावट करने, खाना बनाने वाले इत्यादि लोग इकट्ठे हो रखे थे। खिन्नता का कारण बनी गांजा-चिलम आदि की अति तीव्र गंध जिसने वहाँ की हवा पर पूरा कब्जा कर रखा था।

मस्तिस्क ने कब पैरों को पीछे मुड़ने का आदेश दिया पता नहीं चला। अब प्रयोजन स्थल की ओर धर्मा की पीठ थी। वह टहलते हुए दाहिनी ओर निकल गया। कुछ दूरी पर खाली पड़े भूभाग (प्लॉट्स) में बाहर के मजदूर झुग्गी बनाकर रहते थे। वहाँ से लाल मिर्च-धनिया-लहसुन की चटनी की महक आ रही थी। सोचा कि क्यों न यह नोट यहीं खर्च कर दिया जाये। लेकिन बड़ा प्रश्न था- कैसे ? यूँ ही देने से तो कोई लेगा नहीं और मात्र सौ रुपये उछालने से वह कौन सा दानी कहलायेगा। खैर, उसके मन में एक विचित्र विचार आया और तत्काल ही उसे प्रयोग कर दिया। युधिष्ठिर का ध्यान रख,

वहीं पर एक लड़का मोटर साइकिल के उतारे हुए फटे टायर को दौड़ाकर उसके पीछे दौड़कर खेलने में मस्त था। धर्मा ने उस लड़के को बुलाकर कहा, "यह सौ का नोट तुम्हारी झोंपड़ी के सामने पड़ा था" और नोट उसे थमा दिया। धर्म के उद्देश्य से अपनी जेब से निकाले नोट के बोझ से मुक्त होकर हल्कापन लिए वह घर की ओर चल पड़ा।


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