सन्तोषी
सन्तोषी
अपने स्वभाव के विपरीत पत्नी ने व्यंग्यपूर्ण प्रश्न किया, 'आपको इतना समय कहाँ लग गया, फोन आए तो 15-20 मिनट हो गए। चौराहे से तीन मिनट ही तो लगते हैं। आज किसका भला कर आये !'
केशव के मन को वह बखूबी पढ़ लिया करती है। और यह भी कि वह बहाने की बजाय सीधी बात ही कह देता है।
केशव : अरे कुछ खास नहीं, बस....।
रुक्मिणी ने बीच में ही टोकते हुए कहा, "यही कि दो साँड़ लड़ रहे थे जिनमें एक ने दूसरे को जख्मी कर दिया और लोग तमाशा देख रहे थे लेकिन कोई बीच-बचाव नहीं कर रहा था और तुम... या फिर, कोई बूढ़ा दुकानदार दुकान समेट कर धकेल गाड़ी पर घर जा रहा था लेकिन वह अकेला पुलिया पर धकेल को धकेलने में असमर्थ था, उसे सहारा... आदि। चलिए जी, कुछ ऐसा ही हुआ होगा न ?"
केशव : नहीं, आज ऐसा नहीं हुआ। सही बात तो ये है कि मूँगफली खरीदने में देर हो गई।
रुक्मिणी : मूँग... फली ! (आश्चर्य जताते हुए, उसकी जीभ अटक सी गई) यह तो कमाल हो गया। चौराहे पर एक दर्जन धकेलची हैं और आपको मूँगफली लेने, मेरा मतलब खरीदने में खासी मशक्कत करनी पड़ी। वाह!
केशव : तुम तो जानती हो रुक्मिणी, मुझे ईमानदार लोग अधिक पसन्द हैं। चौराहे पर भले ही बीसों ठेले वाले मूँगफली बेचते हैं लेकिन मैं अपनी गली से एक फर्लांग आगे सन्तोषी से लेकर आया हूँ।
रुक्मिणी : उधर कौन बेचता है, और कहाँ बैठता है ये सन्तोषी ?
केशव : उसका नाम कब पता है मुझे, वह तो उसके व्यवहार से मैंने उसे सन्तोषी कह दिया। वह अच्छी मूँगफली रखता है और पूरी तौलता है इसीलिए बेचारा इतना नहीं कमा पाता कि चौराहे के ठेकेदारों को हफ्ता दे सके। शायद इसलिये ही सरकारी अस्पताल वाले मोड़ पर बेचता है। मैंने कई बार उससे मूँगफली ली हैं और अन्य लोगों को वहाँ से लेने के लिए बोला है। तुम भी ऐसा करना...।
रुक्मिणी : लो जी, अरे मेरे सुघड़ श्री ऐसा करने की क्या जरूरत थी। न जाने किस किस का ठेका ले रखा है आपने। तुम्ही दूर करोगे उसकी गरीबी ?
केशव : मेरी हर बात को मजाक में मत लिया करो तुम। अगर हम जैसे चंद लोग नहीं मदद करेंगे तो दुनिया के दबाव में सन्तोषी भी असन्तोषी बन जायेगा। वैसे भी कितने ईमानदार लोग बचे हैं ? लो मूँगफली खाओ, देखो ! कितनी बढ़िया भूनी हैं।