Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

अपर्णा झा

Drama

4.0  

अपर्णा झा

Drama

स्मृति अशेष

स्मृति अशेष

10 mins
785


चार दिनों के एक कॉन्फ्रेंस से छाया पटना से दिल्ली अपने घर के लिये प्रस्थान कर रही थी। किन्हीं कारणों से ट्रेन कुछ घंटे लेट से आई। संध्या की बेला रही होगी, छाया ने जल्दी-जल्दी अपनी बर्थ के नीचे सामान सेट कर लिया और चैन की मुद्रा में आ गई। एक गहरी सांस उसने ली ही थी कि सामने एक विद्यार्थी सा सज्जन खड़ा हुआ दिखा। चूँकि छाया साइड लोअर बर्थ पर थी और उससे ऊपर बस एक ही बर्थ था...सज्जन ने कहा- "आप इस सीट पर हैं ? मैं ऊपर वाले सीट पर हूँ।" उसने अपना सामान ऊपर वाली सीट पर रखा और बड़ी शालीनता से बोल पड़ा- "क्या मैं यहां बैठ सकता हूँ, थोड़ी देर बाद सोने चला जाऊंगा।" छाया मन ही मन में बोल पड़ी कि "ये तो उसका अधिकार है यहां बैठना...मैं अगर ना भी बोलूं तो भी उसे अगर बैठना है तो मैं रोक नहीं सकती। ये तो उसकी भलमनसाहत है कि लड़की जान इतना आदर कर गया।"

काफी थकी सी छाया, बस इस इन्तिज़ार में कि कब टी. टी. आये...टिकट दिखाए और उसे भी कहे कि "रात अब हो चुकी है जाओ आप भी सो जाओ.." परन्तु ईश्वर को तो कुछ और ही मंजूर था। सज्जन की शालीनता ने ना जाने कैसे बातों का सिलसिला शुरू कर दिया और छाया भी उसमें उलझती चली गई। शायद पटना और दिल्ली, लालन-पालन और शिक्षा का परिवेश एक जैसा होना कहीं ना कहीं उन्हें जोड़े चले जा रहे थे....

"मैं दिल्ली के हंसराज कालेज में परास्नातक का छात्र हूँ, मेरा नाम दुर्गेश सिंह है...क्या आप अपने बारे में बताना चाहेंगी !"

छाया को तो जैसे एक तरह की निश्चिंतता आ गई थी कि वह नहीं कुछ तो उससे चार साल बड़ी होगी ही। छाया के चेहरे की मासूमियत से कोई यह अंदाजा नहीं लगा सकता था कि उसने शिक्षा के क्षेत्र में इतनी विलक्षणताएँ पाईं होंगी और अब वह शोध के क्षेत्र में सेवारत है। शायद दुर्गेश भी इतनी दूर की नहीं सोच पाया हो...वह तो खुद् की तरह उसे भी एक विद्यार्थी ही समझ बैठा था जो एक ही स्थान के निवासी थे और दिल्ली में रहते थे। छाया ने कहा..."क्यों नहीं बताऊंगी...मैं छाया, डॉक्टरेट की उपाधि ले अब शोध के क्षेत्र में कार्यरत हूँ। कॉन्फ्रेंस के सिलसिले में चार दिनों से पटना में थी। दिल्ली में मैं रहती हूं पर ना जाने मुझे मेरी जमीन मुझे हमेशा बुलाती रहती है और मैं भी यहाँ आने के बहाने ढूंढती रहती हूं..." छाया मुस्कुराने लगी। दुर्गेश, जिसकी अब तक कुछ और सोच हो ना हो, पर ना जाने उसे छाया में एक बड़ी बहन जो दोस्त के समान लगती है, ऐसा उसे अनुभव होने लगा था।

रात अब होने लगी थी, सभी अपने खाने का आर्डर कर रहे थे, ज्यों ही छाया खाने का आर्डर देने लगी, दुर्गेश मना करने लगा। "दीदी इस खाने में क्या रखा है ! मेरी माँ और छोटी बहन ने मेरे लिये खाना बनाया है, आप भी उसी में खा लेना।"

छाया उसकी कितनी भी बातों को सुनते रही पर मन में एक बात तो बैठी थी कि दुर्गेश चाहे कितनी बातें कर ले, अपनी बड़ी बहन बना ले परन्तु एक सच्चाई तो यह है ही कि वह उसके लिये अजनबी तो है ही...गंतव्य पर पहुंच दोनों के रास्ते भी अलग हो जाने हैं। दुर्गेश से चाहे उसकी कितनी भी आत्मीयता हो जाये पर इस रिश्ते को ना वो नाम दे सकती है और ना ही इसे आगे बढ़ा सकती है। दोस्तों को बताएगी तो जवाब होगा- "वेरी इनटरेस्टिंग।" घरवालों का क्या ! उन्हें कुछ समझ आएगा भी या नहीं...

छाया ने खाने का आर्डर करते हुए उससे कहा कि कोई बात नहीं। फिर दुर्गेश ने भी ज्यादा जिद नहीं की। शायद वह भी जानता था कि लड़कियों वाला मामला है, कहीं कुछ गलत ही सोच ना हो जाय।

ख़ैर, छाया ने अपने खाने से एक निवाला मुंह में लिया ही था कि उसके चेहरे पर एक अजीब सी अभिव्यक्ति हुई।

दुर्गेश सामने बैठे मुस्कुराने लगा..."कहा था ना दीदी ! मान जाओ...जिद थी सो भुगतो।" फिर दुर्गेश ने छाया के सामने से खाना उठा यह कहते हुए फेंक दिया कि यदि तबियत खराब हुई तो घरवाले जो करेंगे वो तो बाद में, अभी तो उसकी ही सिरदर्दी होगी. फिर दुर्गेश अपना खाना निकाल छाया के साथ बांटकर खाने लगा. छाया इधर खाने की प्रशंसा कर रही थी और दुर्गेश भावुक हुए जा रहा था। अपनी मां की कहानियां, तो छोटी बहन की शैतानियाँ बताने में व्यस्त...रात भी काफी हो चली थी, आस-पास के सीटों पर बैठे लोग दुर्गेश और छाया को लगातार गौर से देखे जा रहे थे कि दो अजनबी में इतनी आत्मीयता कैसे और आखिर क्यों ! इनकी बातें खत्म होने को नहीं आ रही। छाया ने वस्तुस्थिति को भांप लिया था और इस कारण वह अपने आस-पास के लोगों से भी संवाद बनाने की कोशिश किये जा रही थी। वह पास बैठी दो-तीन साल की प्यारी सी बच्ची को भी बातों और इशारों में खुद् के ध्यान को बंटाने में लगी हुई थी।

छाया ने कहा_"दुर्गेश,भाई रात काफी हो चली है जाओ, जाके सो जाओ। मैं भी काफी थकी हूँ, मुझे भी सोना है।"

दुर्गेश ने मनाने के स्वर में कहा- "नहीं आज ना मैं सोऊंगा ना आपको सोने दूंगा। कल आप घर जाकर भरपूर सो लेना। आज बस आप मेरी ही दीदी हैं और आपसे मुझे बहुत बातें करनी है, सोना तो भूल ही जाइये।" उसके चेहरे पर एक प्रश्नवाचक अभिव्यक्ति दिख पड़ी कि छाया उसके प्रताव को मानेगी या ठुकरा देगी...

छाया ने कहा- "मैं रात में जाग तो सकती नहीं, चलो तुम्हारी बात मान कुछ देर जाग जाती हूं, फिर मैं सो जाऊंगी।"

दुर्गेश के चेहरे पर वात्सल्यता की स्पष्ट रेखाएं खींच गई।

"अब तक तो मैं बड़े भाई और बड़े के रूप में ही खुद को पाया हूँ।आज तक कभी किसी से अपनी बात नहीं कह पाया पर आज ना जाने क्यों मुझे ऐसा लग रहा है कि मुझे भी एक ऐसी बड़ी बहन मिल गई जिससे आज मुझे बहुत कुछ कहना है।आप की आप जानों, मैं नहीं जानता कि यह रिश्ता जो आज हमारे बीच बना है उसकी सूरत क्या होगी, उसका भविष्य क्या होगा, पर आज आप सोओगी नहीं। आज मुझे कह जाने दो वो सारी बातें जो आज तक अपने घर वालों से भी छुपाई है और इसका राजदार शायद मेरा सबसे प्यारा दोस्त भी नहीं...और भविष्य में कभी किसी को बताऊंगा...शायद नहीं जानता. आज आप मेरी सुनोगी बस..."

छाया तो पेशोपेश में...आज तक अकेले उसने कितनी ही यात्राएं की होगी, परन्तु ऐसा पशोपेश कभी नहीं हुआ था तो आज ये क्या हुआ !

छाया उसकी आधी बातों को सुनी-अनसुनी जैसा कर रही थी और मन ही मन में यह भी सोचे जा रही थी कि इन सब से वह छुटकारा पाए तो कैसे !

खिड़की से बाहर नज़र गई तो वो रात का अंधेरा तब तक जाने कहाँ दूर चला गया था...उस अंधेरी रात में शहरों में दिखने वाले लाइट की रोशनी मानों आकाश में टिमटिमाते तारे, भी ना जाने कब अदृश्य हो गए। भोर का आगमन हो आया था। आकाश में सूर्य की लालिमा और उड़ते हुए पंछियों के झुंड एक अद्भुत छटा बिखेर रही थी...तभी अनायास ही दुर्गेश की बातों पर ना जाने क्यों ध्यान खींच गया...

"दीदी आप सुन रहीं हैं ना मेरी बात ! जानती हो बचपन से ही मैं बड़ा होनहार बच्चा था, परन्तु ना जाने कब और कैसे गलत लड़कों की संगत में आ गया। हाँ दीदी, मैंने भी गलती की है...मैंने बहुत बड़ा पाप किया है। पटना में रहते हुए नेपाल के रास्ते मैंने भी स्मगलिंग की है। चरस-गांजे की स्मगलिंग की है। मुझे पकड़े जाने का डर था। मैं अंदर ही अंदर पीसता जा रहा था। लगता था कि कोई तो हो जिसे यह बात तब बता इनसे छुटकारा पाऊं..."

"दीदी हम लोगों की परवरिश भी कैसी होती है कि जो बच्चा घर में सबसे बड़ा होकर पैदा हो, उसे उसकी सारी जिम्मेदारियां भी बचपन में ही बता दी जातीं हैं। वह बच्चा भी क्या...अपनी अपरिपक्वता में ही बचपन से ही खुद को बड़ा समझने लगता है। उसे कहां ये पता होता है कि उस पर भी मौसम की अच्छी-बुरी मार पड़नी है। घर के लिये तो वह सबसे समझदार और जिम्मेदार बच्चा बनकर रह जाता है जिससे उम्मीदें तो सबकी होती हैं पर वह किसी से उम्मीद नहीं कर सकता है, वह गलत हो नहीं सकता है। सच बताऊं तो मेरे दिल्ली में पढ़ने का कारण सिर्फ मैं जानता हूँ। मैं अतीत को भूलना चाहता हूँ। परिवार वाले मेरे दिल्ली प्रस्थान को तो मेरे आई.ए.एस. होने की तैयारी से जोड़ते हैं। उनमें तो एक उम्मीद की खुशी भी जगी हुई है, परन्तु मेरा क्या ! मैं कितनी भी ऊंचाई पर भले ही चला जाऊं, क्या मेरा अतीत मेरा पीछा छोड़ पाएगी ! मैं कब तक इस पाप की अग्नि में झुलसता रहूंगा और समय का इन्तज़ार करूंगा कि अपने अभिभावक को बता पाऊं कि हाँ मैंने भी पाप किये हैं, उनसे धोखा किया, झूठ बोला। क्या वो इसका विश्वास भी कर पाएंगे और हाँ यदि ऐसा हुआ तो मेरी गलती को माफ करेंगे। क्या वह इस गलती के पीछे हुए चूक को समझ पाएंगे ?

दीदी, क्यों, आखिर क्यों घर-परिवार की बनावट ऐसी है, क्यों परिवार में सदस्य मात्र अपने सुकृत्य को ही साझा कर पाते हैं ? क्यों उनमें यह समझ नहीं होती है कि वो भी उस दौर से गुज़रे होंगे, जहां उसे उसके परिवार की जरूरत सबसे ज्यादा होती है। ऐसा सम्भव ना हुआ तो परिवार की अनुपस्थिति में वह किसी और को तलाशता है, जहाँ उसका प्रायश्चित तो नहीं हो पाता बल्कि समाज को उसके कृत्य का पता होता है पर उसका परिवार उन बातों से अनभिज्ञ ?"

छाया की हालत रात के जागरण से बदतर हो ही गई थी, परन्तु यह सब सुनते हुए उसकी हालत ऐसी हो रही थी कि जैसे काटो तो खून नहीं। सोच पर तो जैसे ताला ही लग गये हो।

बातों को मोड़ मिले, इसलिये छाया ने मुस्कुराते हुए दुर्गेश से कहा कि रात भर तो उसने अपनी बातों से परेशान किया ही, अब सुबह भी हो गई...सिर दर्द हो रहा है, जरा प्लेटफ़ॉर्म से अच्छी सी चाय बनवा तो लाये...

दिन हो चला था, घड़ी साढ़े ग्यारह बजा रही थी। किसी भी समय दिल्ली का स्टेशन आने वाला था। उसने अपने होस्टल का नंबर दिया। अब वह बिल्कुल शांत हो गया था। जो रात भर इतना बोलता रहा उसके शब्द भंडार ना जाने कहाँ विलीन हो गए थे। छाया की तरफ भावुकता से देखते हुए बोला- "यह मेरे होस्टल का नंबर है, मैं मिलूं या ना मिलूं पर आप मुझे याद तो रखेंगी।

ना दीदी !" छाया बिना कुछ बोले मुस्कुरा गई।

स्टेशन आते ही दुर्गेश ने छाया का सामान उठा ऑटो स्टैंड तक गया। ऑटो पर ज्यों ही छाया बैठ उसकी तरफ देखी तो दुर्गेश अपनी नम आंखों से उसके पांव छू लिया। ऑटो के चलते ही दुर्गेश छाया को दूर तक निहारते रहा।

छाया कहाँ तो हर बार की तरह घरवालों को कॉन्फ्रेंस में हुई चर्चाओं को बताने वाली थी पर इस बार तो इसके पलट वह सब कुछ भूल गई थी. याद रहा तो दुर्गेश की बातें, हाव-भाव और परिवार से जुड़े कई सवालात जो अब भी उसके कानों में कौंध रहे थे और वह रात बीती परिवार को बताना चाहती थी, पर, कैसे ? वह एक लड़की थी जिससे ऐसी बातें घरवाले सुनते भी कैसे ! और सुन भी लेते तो ना जाने अनदेखे चेहरे को कहीं गलत मानने की गलती ना कर जाते। छाया ने बेहतर समझा कि वह चुप ही रहे। छाया को उसकी नम आंखों से पैरों को छूना और दूर तक निहारना याद आ रहा था। साथ ही साथ, उसे नज़र आ रहा था वो मंज़र... जाती हुई रेल की दूर तक बजती हुई सीटी की आवाज़ और अंतहीन लंबी खाली पटरियां जिसके मिलने का कोई भविष्य नहीं...

समय बीतता गया और समय की चादर इस याद पर परत-दर-परत चढ़ती गई। छाया अब गृहस्थ जीवन में मशगूल थी। दो बच्चे की माँ बनी...आज अचानक से उसे दुर्गेश याद आने लगा, उसके सवालात याद आने लगे। ऐसा लगा कि छाया की संतान दुर्गेश बन कहीं उम्र की उसी दहलीज़ पर, उन्हीं सवालों में तो नहीं उलझ गये...

तब छाया के पास दुर्गेश के सवालों का जवाब हो ना हो परन्तु आज उसे तसल्ली इस बात की जरूर थी कि वह दुर्गेश को उसके सारे संशयों का जवाब दे सकती है। आज छाया भी एक माँ है परन्तु जीवन में, दुर्गेश के अभिभावक या अपने अभिभावक की सोच रखने को तैयार नहीं...वह अपनी संतान से हमेशा यह वचन लेती रही है और लेती रहेगी कि उसके अच्छे को उसकी मां जिस प्रकार से सुनती है, उससे हुये बुरे को भी वह सुनेगी, बेशक थोड़ी देर को उसे दुख हो, पर उसकी माँ उसके हर मोड़ पर उसके साथ होगी। बस अपनी माँ से अपनी बातों को वह छुपाने की कोशिश ना करे।


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama