पकोड़ा चिंतन
पकोड़ा चिंतन
मेरे घर के सामने बने पार्क में पकोड़ा चिंतन चल रहा था। मैं अचंभित था - चिंतन तो प्रभू का होता है और प्रभू मिलन तो केवल बाबा ही करा सकते हैं। देश के अधिकांश बाबा फिल्हाल जेल में हैं । चिंतन कैसे हो सकता है ! चिंतन में मुझे भी बुलाया गया था। दुबे जी मुझे लेने आये थे। मैं खुश हआ। कोतूहलता को पीछे छोड़ दिया। मैं मोहल्ले का विवेकानंद हूं। फर्क केवल इतना है कि उन्हें बाहर ख्याति मिली और मुझे घर पर मिल रही है। घर का ज्ञानी विदेशी ज्ञानी से ज्यादा स्ट्रांग होता है। मौका पड़ने पर वह शेर हो सकता है।
यहॉं लोगों का मानना है कि मेरा रसूखदारों से लिंक है। मैं आम को इमली करवा सकता हॅूं। तपती धूप में ओले गिरवा सकता हूं। वैसे भी अंधों का राजा काना ही होता है। मैंने बीवियों की तरह बनावटी नखरा करते हुये कहा - ‘दुबे जी इस परिचर्चा में मुझे न घसीटो। परसों गुप्ता जी ने अपनी शादी की सालगिरह में बुला लिया था और वहॉं मेरे मुंह से गुप्ताइन की तारीफ निकल गई।‘ मैंने कहा -- ‘भाभी जी आज तो कयामत ढ़ा रही हैं। बनारसी डिजाइनर साड़ी और उस पर नौ लखा हार ! आज किसकी तपस्या भंग करने का इरादा है ?‘ छड़ों की अक्सर जबान फिसल जाती है। गुप्ताइन फूल कर कुप्पा हो गईं जैसे बिल्ली को छींका दिख गया हो। वे हल्की सी मुस्कराई।
राय साहब गिरते - गिरते बचे। मैंने उन्हें संभालते हुये कहा - ‘राय साहब यहॉं नहीं। भाभी जी देख रहीं हैं।‘ उन्होने पीछे घूमकर देखा, पत्नी दांत पीस रही थी - ‘कुछ तो शर्म करो। पोता आने वाला है और तुम्हारी लंपटता अभी तक नहीं गई। तुम घर तो चलो, तुम्हें मैं देखती हूं ।‘ राय साहब झेंपते हुये कुर्सी के नीचे अपनी बत्तीसी ढ़ूंढने लगे। मैं मैदान में थोड़ा और आगे बढ़ा - ‘भाभी जी, आपके प्लाश जैसे लाल - लाल होंठ और उस पर यह अनार के दानों जैसे दांत और हाय यह मादक मुस्कराहट। भाभी जी कत्ल का सारा सामान लेकर आईं हैं ! लगता है, आज यहॉं से कोई जीवित नहीं जा पायेगा।‘ राघे ने चुटकी ली - ‘भाभी जी देखना , गुप्ता जी हार्ट के मरीज़ हैं। अब और नहीं संभाल पायेंगे। यहॉं केवल हम ही सौ फीसदी स्वस्थ हैं।‘ मिस्राइन से काली कलुटी गुप्ताइन की तारीफ न सुनी गई। उनकी सुंदरता की चर्चा पूरे शहर में थी। वे किटटी पार्टीज़ की सबसे हॉट मॉडल थीं। सुंदरता एक नशा है जिस पर छा जाता है वह मतवाला हो जाता है। मिस्राइन को मैं पंसद था और मुझे सब पंसद हैं। मॅंह बोला लेखक एक का नहीं हो सकता। वह सब का होता है। मिस्राइन की उम्र 50 के लगभग है लेकिन, लगती 25 की हैं। औरत की उम्र जैसे - जैसे ढ़लती जाती है वह और खूबसूरत होती जाती है। मर्द उम्र के साथ भिखारी हो जाता है। मिस्राइन के दो बेटे शादी के लायक हैं। अलबत्ता जवान बच्चों के चलते उन्होंने कभी मुझसे डारेक्टली बात नहीं की वे अक्सर अंखियों से ही गोली मारती रहीं हैं लेकिन यहॉं ख्ुला मंच था। ऑंखें नचा कर बोलीं - ‘शुक्ला जी, सुबह हो गई हैं। आंखें खोल कर देखो, बागों में बहार ही बहार है।‘ उनकी ऑंखों में निमत्रंण था। मैं असमंजस में पड़ गया। दोनों गर्लफ्रेंड एक साथ सामने थीं। इससे पहले कि मैं गुलाब की ओर बढ़ता। बगिया का माली आ धमका - ‘माफ करना, गुप्ता जी ज़रा लेट हो गया। बॉस की बीवी की साड़ी लाने चला गया था। ‘ मिसराइन पैर पटकते हुये चली गईं। मैं जमीन पर आ गया। दुबे जी ने पूछा - ‘फिर क्या हुआ ?‘ मैंने कहा - ‘होना क्या था। पार्टी में हंगामा मच गया। गुप्ताइन, गुप्ताइन हो गई और मेरी स्थिति उस पेड बाराती की तरह हो गई जिसके सामने से छप्पन भोग की प्लेट खींच ली गई हो।‘ बातें करते - करते हम पार्क में आ गये।
स्थानीय सरकारी स्कूल के मास्टर जी कह रहे थे -‘सरकार बेरोज़गारों से पकोड़े तलवाना चाहती है। पेट काट - काट के बच्चो को पढ़ाओ। फिर उनसे पकोड़़े तलवाओ। सरकार पगला गई है। क्या टाइम आ गया है। कालेज़ों की मोटी- मोटी फीसें दो। सरकार को टैक्स पर टैक्स दो और उस पर सुन रहें हैं कि रोज 200 रूपये कमाने वाला बेरोजगार नहीं हैं। अब बच्चों को पढ़-लिखा कर पकोड़े तलवायें।‘ कुछ सोचते हुये तनिक दार्शनिक अंदाज़ में बोले - ‘मैं मानता हॅू कि कोई काम बुरा नहीं होता पर, कोट - टाई के साथ रिक्शा तो नहीं न खींचा जा सकता। ऐसे बचकाने तर्क पर सरकार को शर्म आनी चाहिये और अगर सरकार की यही इच्छा है तो स्कूल, कॉलेज़, यूनीवर्सिटिज़ की दुकानों को ताला लगा देना चाहिये। पकोड़ों के लिये किसी प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती।‘
बिजली दप्तर के बाहर चाय - पकोड़े का ठेला लगाने वाले रामदीन ने कहा - ‘कोई इनसे पूछे साहब, सप्ताह में 50 - 100 रूपये नगर निगम बाबू खाता है उसका क्या ? रोज 10 - 20 रूपये सिपाही झटक जाता है। वह किस हिसाब में है ?‘
अर्थशास्त्र के प्रोफेसर कोहली पनीर का पकोड़ा उठाते हुये बोले - ‘एक्चूयली गर्वमेंट हैज़ नथिंग टू गिव। दे डोंट हैव एन एप्रोपरेट इंप्लॉयमेंट पॉलिसी फॉर यूथस। एक्चूयली मैक्सीमम इंप्लॉयमेंटस आर इन अन - ऑरगेनाइज़ड सैक्टर। बट इनसटिड ऑफ एक्सटैंडिट र्स्पोट टू दीज़ सैक्टर। दे जस्ट हैव करशड दीज़ सैक्टर बॉय डि मौनिटाईजेशन।‘
पांचवीं पास बिजनैसमैन सिंगला साहब को कुछ समझ नहीं आया। मिर्च के पकोड़े से उनकी आंख - नाक से पानी निकल रहा था। वे गुस्से मे बोले - ‘सरकार हमसे जी. एस. टी ., इनकम टैक्स, रोड टैक्स, पापर्टी टैक्स, स्वच्छता टैक्स। न जाने कौन - कौन से टैक्स लेती है। इतने सारे टैक्स और फिर नारा, वन टैक्स, वन नेशन। नौटंकी बना रखा है।‘
मास्टर जी भी तैश में आ गये - ‘सिंगला जी हमारी मेहनत की कमाई को बैंको के माध्यम से पूंजीपतियों की तिजोरियों में पहुंचाया जा रहा है। उनके चंदों से इलैक्शन लड़ा जाता है। वे हमारी खून - पसीने की कमाई डकार कर बाहर भाग जाते हैं। सरकार जॉंच के नाम पर लीपापोती में लगी रहती है। मेरी मानों, यह सब सिस्टेमैटिक ऑरगेनाइज़ड लूट है। वही वादे, वही कस्में, कहीं कोई बदलाव नहीं।‘
हमारे देश में चार तरह के लोग हैं।। एक वे जो अपनी ही दुनिया में मस्त हैं। दूसरे वे, जिनके मुंह में ज़बान नहीं है। तीसरे वे जिनके मुंह में ज़बान तो है लेकिन कटने के डर से कछ बोलना नहीं चाहते और चौथे वे जो कभी - कभी बोलते हैं तो खूब बोलते हैं लेकिन भीड़ में उनकी सुनने वाला कोई नहीं है। इस मोहल्ले में अधिकतर गूंगें व बौड़म रहते हैं जो एक - दूसरे के सामने गूं - गूं करते हैं पर खुल कर कुछ कह नहीं पाते। वे दिल से सुनते हैं। इन्हें मालूम है कि ये ठगे जा रहे हैं लेकिन ये उसमें भी मज़ा ले रहे हैं।
मसखरा नाई ननकू पनीर के पकोड़ों पर हाथ साफ करता हुआ चिल्लाया - ‘पढ़े पारसी बेचे तेल, यह देखो कदरत के खेल।‘
मैंने दाल - मोठ की प्लेट अपनी ओर खिसकाते हुये, सभा में सबसे पीछे बैठे एक गूगे से पूछा - ‘यार, तिवारी जी, तुम्हारा बेटा तो यू.एस़ ए. में है न ! क्या कर रहा है आजकल ?‘ वे गुंगवाये - ‘कहॉं शुक्ला जी, वहॉं किसी आई .टी कम्पनी में सॅोफटवेयर इन्जीनियर था। पिछले दिनों छटनी में नौकरी चली गई। यहीं आ गया है। आपने देखा नहीं, यहीं बाज़ार में पनवाड़ी की गुमटी के पास पकोड़े की दुकान चला रहा है।‘ ‘और लतिका, उसका तो इस साल बी.डी.एस. कम्पलीट हआ है न ?‘ वे गुंगवाये - ‘हॉं काफी कोशिश की लेकिन नौकरी नहीं मिली। आगे पढ.ाने के लिये मेरे पास पैसे भी नहीं है। वह भी बेटे विकास के साथ जलेबी छानती है। ‘
मैंने कहा - ‘भैया तिवारी, डॉक्टरी कर के जलेबी !‘ वे कुछ नहीं बोले बस आंखों से आंसू बहाते रहे।
हुनर सड़कों पर तमाशा करता है और किस्मत महलों में राज करती है।
यह कैसा देश है जहॉ बकैंसियॉं निकलती हैं। फजऱ्ी फार्म बिकते हैं। बेरोज़गारों से परी़क्षा फीस ली जाती है। पेपर लीक होते हैं। मामला कोर्ट में जाता हैं फिर बकैंसी निकलती है फिर फीस ली जाती है। कहीं कोई विराम नहीं। बेरोज़गारों के दर्द को कोई समझना नहीं चाहता।
मैंने देखा अचानक पार्क की रेलिंग फांदकर दुबे जी का पी़ एच ़ डी ़ बेटा राकेश हाथ में आमरण भूख हड़ताल की तख्ती लिये भागा चला आ रहा है। मैंने पूछा - ‘क्यों बेटा, यह हड़ताल किसलिये ?‘
वह बड़े जोश में था, बोला - ‘अंकिल, हम अपना हक लेकर रहेंगे सरकार हमें पकोड़े तलने पर मजबूर नहीं कर सकती। हमें हमारी पढ़ाई व योग्यता के अनुरूप नौकरी चाहिये। हमें सरकार से कोई भीख नहीं चाहिये।‘ मैंने उसे समझाते हये कहा - ‘वो तो ठीक है पर ? ज़रा सोचो, क्या यह तरीका ठीक है।‘ वह दो टूक बोला - ‘अंकिल, अब उन्हें कुछ सॉलिड फैसला करना ही होगा। मैं आप सब को निमंत्रण देने आया हूं
। कल सुबह दस बजे सरकारी बेरका बूथ वाले पार्क में रोज़गार हेतु यज्ञ का आयोजन है। आप सभी को आना होगा।‘
रेडियो पर मन की बात चल रही है। सरकार देश के युवाओं को आगे लाना चाहती है। देश के विकास में भागीदार बनाना चाहती है। सरकार योजनाओं पर खर्च कर रही है। आप सभी नौजवानों से अनुरोध है कि हमारी रोज़गारोन्मखी योजनाओं को कामयाब बनाने में हमारी मदद करें। योजनाओं का लाभ उठायें। आगे बढें। हमसे रोज़गार मांगने की बजाय स्वंय रो़जगार पैदा करें। नया भारत बनाने में हमारी सरकार का सहयोग करें। जय हिंद।
नोट - पकोड़ा चिंतन का सार यह निकला कि मास्टर जी को दस्त लग गये। बिज़नेसमैन सिंगला जी को पेचिश के कारण अस्पजाल में भर्ती होना पड़ा। अर्थशास्त्र के प्रोफेसर साहब गैस के कारण पूरी रात करवटें बदलते रहे। ननकू के घर में रात खाना नहीं बना। पकोड़ा चिंतन के आर्गेनाइज़र दूबे जी का अपनी बीवी को शॉपिंग न करा पाने के कारण हुक्का - पानी बंद हो गया और मैं घर आकर गहरी नींद सो गया।