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रिश्तों का यथार्थ

रिश्तों का यथार्थ

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भैया का फोन था तुम्हारी भाभी नहीं रही। भैया की आवाज़ सुने जाने कितने बरस हो गये। जब पापा नहीं रहे थे तब के बाद आभा ने अब आवाज़ सुनी भैया की।

आभा ने बगैर देर किये फ्लाइट बुक कर ली। मायके की याद आते ही एक बार फिर अतीत की कस कर बाँधी पोटली कब खुल गयी और सब कुछ एकबारगी आंखों के सामने आ गया।

पापा की मृत्यु के बाद उनकी वसीयत ने पूरे घर को हिला दिया था। पापा ने यह घर भैया के नाम और फॉर्महाउस आभा के नाम कर दिया था। पापा का यही फैसला भैया-भाभी को नागवार गुजरा। भैया ने इसी आँगन में कोर्ट की तरह ज़िरह शुरु कर दी थी।

क्यों आभा ! तूने पापा से माँगा तो नहीं था ?

"नही भैया।"

बगैर कहे पापा जी ऐसा कैसे कर सकते थे ?" कह, भाभी ने अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की।

ठीक है भैया, आप कल ही वकील बुला लीजिये, मैं आपके नाम कर दूँगी। लेकिन भैया के जाते ही आभा के पति ने कहा।

" तुम ऐसा हरगिज़ नहीं करोगी।"

अब आभा के पास कोई विकल्प नहीं। आभा ने पूरी बात भैया को बतायी। सुनते ही भैया से पहले भाभी बिफर गयीं।

देखा ! मैंने पहले ही तुमको कहा था। बड़ा विश्वास था तुम्हें, अपनी बहिन पर। अब अपनी आँखों से खुद देखो।

पापा की वसीयत ने सारे रिश्तों की सच्चाई को तार-तार कर नंगा कर दिया था।

न भैया- भाभी के स्नेह से हमेशा के लिये वंचित कर दी गयी आभा।

मन एक बार फिर कसैला होने लगा। आभा की अपनी सोच ऐसी तो नहीं थी, फिर भाभी की तरह वह क्यों बन रही है ?

माना, भाभी की नाराज़गी ने उसके मन में भी कटुता भर दी थी।लेकिन उसे सदैव भैया -भाभी से स्नेह था । फिर....?

फिर आभा अपने को रोक नहीं पायी। मन का सारा ग़ुबार आँसुओं के साथ बह निकला।


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