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V. Aaradhyaa

Inspirational

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V. Aaradhyaa

Inspirational

दोनों कुल की लाज़ निभाना

दोनों कुल की लाज़ निभाना

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"अनु... सुन बेटा ! ऐसा क्या कह दिया मैंने?"

राघव अनु के पीछे पीछे भाग रहा था और अनु कुछ सुनने को तैयार नहीं थी।

"बस करो पापा ! आप कभी नहीं समझोगे। अब आप सिर्फ मेरे पापा नहीं हो, आप मेरी मां भी हो। और जिस तरह आप मेरा मेरी मां बन के मेरी देखभाल कर रहे हो वैसे ही मेरा भी फर्ज बनता है कि मैं आपके प्रति अपना कर्तव्य निभाऊं!"

"तो निभा लेना अपना कर्तव्य। कर लेना मेरी देखभाल। इसमें भला तुम्हारी शादी से कौन सा अंतर पड़ जाएगा ?"

राघव ने थोड़ा अजिज होकर कहा।

"पापा ! आप ही बताओ , ऐसा कौन सा लड़का होगा जो मुझे अपने पापा के साथ जिंदगी भर रहने की इजाजत देगा?"

"लेकिन जिंदगी भर मेरे साथ रहने की जरूरत क्या है बिटिया ? तुम अब बड़ी हो गई हो और तुम्हारी शादी करना मेरी जिम्मेदारी है। और अपने पापा की बात मानना भी तुम्हारे कर्तव्य में ही आता है इसलिए तुम अब शादी से इंकार नहीं कर सकती। एक बार अरुण से मिल तो लो अगर वह तुम्हें पसंद ना आए तो फिर कोई और ढूंढ़ लेंगे। पर... बेटा! अपने इस बूढ़े बाप के मन की शांति के लिए तुझे शादी तो करनी ही पड़ेगी। अपने जीते जी अपनी आँखों के सामने बेटी का घर बसता हुआ देख लूँ वरना ऊपर जाकर तुम्हारी माँ को क्या जवाब दूँगा!"


बोलते हुए उनका गला रुंध गया और आँखें छलक पड़ी।


"ओह... पापा! अब बस भी करो आप। फिर से सेंटी होने लगे!"

बोलकर वह अपने पापा के गले लग गई। "मेरी बिटिया तू तो मेरे जीवन की चिट्ठियाँ है!"


बोलते हुए वह भावुक हो गए।

"ठीक है पापा ! अगर आप कहते हो तो मैं अरुण से शादी करने को तैयार हूँ । लेकिन उसके पहले मैं अरुण से यह बात एकदम क्लियर कर लेना चाहती हूँ कि आप हमारे साथ रहेंगे"

"पागल है तू अनु ! ऐसी बात भला कोई लड़का मानता है ? अब ऐसी जिद लेकर बैठ गई है कि मैं पेशोपेश में पड़ गया हूँ। इससे तो अच्छा है मैं वृद्धाश्रम चला जाऊं और तू मेरी जिम्मेदारी से मुक्त होकर अपना घर बसा सके!"

"क्यों नहीं मानता कोई ? और क्यों नहीं मानेगा अरुण?"

"बस कर बिटिया! यही रीत है यही समाज का चलन है कि बेटियों को ब्याह करके अपने ससुराल जाना होता है और बेटियों के माता-पिता की देखभाल बेटियां नहीं कर सकती। बुढ़ापे में उन्हें अपनी जिंदगी अकेले काटनी होती है शायद इसीलिए हर माता-पिता चाहते हैं कि उनके एक बेटा जरूर हो!"

"अगर ऐसी बात है पापा तो माँ के जाने के बाद आपने दूसरी शादी क्यों नहीं की ? आप भी एक बेटा ले आते जो आपके बुढ़ापे में आप की देखभाल करता। अपने लिए तो आपके अलग मापदंड है और मेरे लिए आप वही पुराने जमाने की मान्यता लेकर चल रहे हो। जहां बेटा ही वंशधर होता था और बेटा ही माता-पिता की देखभाल कर सकता था। मैं बेटी हूं तो क्या ? मैं आप की देखभाल करूंगी और मैं अरुण को भी इस बात के लिए बोलूंगी कि मेरे पिता हमेशा मेरे साथ रहेंगे। जिस तरह अरुण के माता-पिता हमारी जिम्मेदारी होंगे और मैं उनकी देखभाल करूंगी वैसे ही आप भी मेरे और अरुण की जिम्मेदारी होंगे और हमारे साथ रहेंगे!"

यह नए जमाने की नई सोच थी जो राघव की समझ से परे थी।

अनु का मन बहुत अशांत था पिता से बातें करने के बाद भी उसके मन में यह सवाल रह गया था कि क्या अरुण उसकी बात मानेगा?

उसने सामने रविवार को अरुण से मिलने का निश्चय किया।

कहना ना होगा कि यह दिन अनु के लिए कितनी मुश्किल से गुजरे। उसे अरुण से एक यही जरूरी बात पूछनी थी और उसके मन में बार-बार यह ख्याल आ रहा था कि अगर अरुण ने मना कर दिया तो उसे अरुण को रिश्ते के लिए मना करना पड़ेगा क्योंकि वह अपने पिता को वृद्धावस्था में ऐसे अकेले छोड़कर अपनी शादी करके अपना घर नहीं बसा सकती थी।


अरुण उसके पिता का स्टूडेंट रह चुका था इसलिए बचपन में कई बार उन दोनों का आमना सामना हो चुका था। पर बड़े होने पर वह अरुण को पसंद करने लगी थी। उसकी आँखों में अपने लिए चाहत देखकर ही अरुण ने अपना रिश्ता भेजा था जिस बात से अनु के पिता अनभिज्ञ थे।


अनु को अरुण पसंद था और उसे लग रहा था कि वह उसकी बात ज़रूर समझेगा।

अनु के आश्चर्य की सीमा न रही जब अरुण ने उसकी बात बहुत ही ध्यान से सुनी।

"बस इतनी सी बात ...?

अरुण ने हंसते हुए कहा।

" चिंता से मेरी जान जा रही है और तुम्हें यह इतनी छोटी सी बात लगती है ?"

नखरे दिखाते हुए उन्होंने कहा।

"बात है ही छोटी सी !"

अरुण ने उसे चिढ़ाया।

" तो...इसका मतलब मेरे पिताजी हमारी शादी के बाद हमारे साथ रह सकते हैं?"

अनु ने चहककर कहा।

"बिल्कुल रह सकते हैं !"

अरुण ने अनु के गाल थपथपा कर कहा।

"ओह अरुण ! मुझे यकीन नहीं आ रहा है कि तुम इतनी खुले विचारों के हो और तुमने यह बात इतनी आसानी से मान ली। क्या तुम्हारे माता-पिता को भी इस बात से सहमति है क्या उनको कोई ऑब्जेक्शन तो नहीं होगा अगर मेरे पिता तुम्हारे घर तुम्हारे साथ आकर रहेंगे तो...?"

अनु ने अपने मन का डर बयान किया।


दो दिन बाद अरुण ने अनु को बताया कि,

" मेरे माता-पिता से मैं इस बात के बारे में बात कर चुका हूं और उन्हें कोई आपत्ति नहीं है!"

अरुण ने अनु को आश्वस्त करते हुए कहा।

अनु की शादी के बाद राघव जी अकेले रह गए पग फेरे पर जब अनु आई तो उसने उन्हें अपने साथ चलने के लिए कहा लेकिन राघव जी का मन अभी भी नहीं मान रहा था।

आज राघव जी को बहुत संकोच हो रहा था कि वह अपनी बेटी की शादी के बाद उसके ससुराल जाकर कैसे रहेंगे वह बहुत ही असमंजस में थे तभी इसका हल निकालते हुए उस उसके दामाद ने एक बात कही जिससे अरुण जी का राघवजी का स्वाभिमान भी रह गया और अनु की चिंता का हल भी निकल गया।

अरुण ने राघवजी की मन: स्थिति को भांपकर उनसे एकांत में बात की।

"पिता जी मैं आपके मन की स्थिति को समझ पा रहा हूं हमारे समाज का ढांचा ऐसा है कि आज भी कोई पिता बेटी के घर जा कर रहे इससे अच्छा नहीं माना जाता इसलिए मैंने अनु ने और मेरे माता पिता ने सब ने मिलकर इस समस्या का एक हल निकाला है। हमने इसी शहर में दो फ्लैट्स लिए हैं और एक फ्लैट में आप रहेंगे और एक फ्लैट में हमारा परिवार रहेगा। दोनों घर आसपास रहेंगे तो एक दूसरे की देखभाल भी हो जाएगी और आप अकेले भी नहीं रहेंगे वैसे भी आप जहां पर रह रहे हैं यह जगह शहर से बहुत दूर है और कुछ दिनों में आपको और भी अकेलापन लग सकता है। अगर आपको मंजूर हो तो आप खुशी-खुशी उस फ्लैट में शिफ्ट हो जाइए!"

अरुण के मुंह से यह सुनकर राघव जी गदगद हो गए समस्या का कितना सुंदर हाल सोचा था बच्चों ने।

राघव जी भावुक होकर बोले,

"भगवान तुम्हारे जैसा दामाद हर किसी को दे। और मेरे जैसी बिटिया भी हर किसी को दे जो अपने पिता का संभल बनी है और कहीं से भी कभी भी मुझे कमी नहीं खलेगी कि मेरा कोई बेटा नहीं है!"

"पिताजी आप यह क्या कह रहे हैं कि, आपका कोई बेटा नहीं है। मैं हूँ ना आपका बेटा !"

कहते हुए अरुण उनके गले लग गया।

तभी अनु सबके लिए चाय लेकर आई और यह दृश्य देखकर एकदम भाव विभोर हो गई।

आज उसे अपने चयन पर गर्व हो रहा था कि उसने अरुण को अपने जीवनसाथी के रूप में चुना था और उसने जैसा सोचा था अरुण वैसा ही विचार बार और संवेदनशील निकला।

"अब बाप बेटे में बातचीत खत्म हो गई हो तो चाय पिया जाए!"

अनु ने उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए कहा।

"देखो पापा ! हमारे प्यार से किसी किसी को जलन हो रही है!"

अरुण ने अनु को छेड़ते हुए कहा।

बदले में अनु ने भी नकली गुस्सा दिखाते हुए और अरूण को मुंह चढ़ा दिया।

दोनों को बच्चों की तरह लड़ते देख कर आज राघव जी को बहुत खुशी हो रही थी और बुढ़ापे में भी अपना भविष्य सुरक्षित देखकर उनके मन में एक अजीब सा सुकून था और एक शांति थी।

गृह प्रवेश के बाद उन्होंने अपने समधी और समधन को बहुत धन्यवाद दिया और कहा,

"अरे समाज में बेटियों को शादी के बाद नए रिश्तों को अपनाने के लिए सिखाया जाता है और ससुराल वालों को सम्मान देना सिखाया जाता है और ससुराल में बुजुर्गों का ध्यान रखना सिखाया जाता है। धन्य है आप दोनों एक माता-पिता के रूप में अपने अपने बेटे को भी इतनी अच्छी शिक्षा दी है कि वह पत्नी का सम्मान करने के साथ-साथ पत्नी की समस्या का समाधान करना भी जानता है। और पत्नी के माता-पिता की भी समुचित इज्जत करना जानता है काश हमारे समाज में हर लड़का अपनी पत्नी को भी इज्जत दे और दोनों परिवार को मिला कर रखने की मंशा अगर पति पत्नी दोनों मिलकर करें तो शायद इस समाज में कहीं भी कोई वृद्ध और बुजुर्ग अकेले और दुखी नहीं रहेंगे और वृद्ध आश्रम की भी कोई आवश्यकता नहीं रहेगी!"

उनके समधी गोपाल जी और समधन मीना जी ने भी भावुक होकर उनका हाथ पकड़ते हुए कहा,

", अब हम रिश्तेदार हैं भाई साहब! हम सब मिलकर एक ही हैं। और इस सब परवरिश में आपकी बिटिया का भी बहुत बड़ा हाथ है। आपने अपनी बिटिया को सिखाया कि सास-ससुर माता-पिता की तरह होते हैं और उसने पहले दिन से ही हमें इतना सम्मान और प्यार दिया कि हम भी आपको सम्मान देने के लिए मजबूर हैं। क्योंकि शादी से पहले ही आपकी बिटिया ने साफ-साफ अपनी मजबूरी बता दी थी और उसकी इसी ईमानदारी ने हमें इस रिश्ते के लिए सकारात्मक ऊर्जा भर दी थी। और हम समझ गए थे कि जो बेटी अपने पिता को अकेला नहीं छोड़ सकती वह अपने सास-ससुर को भी कभी अकेला नहीं छोड़ेगी!"

सही कहा है किसी ने कि ...

जब कोई इंसान अच्छा होता है तो वह हर रिश्ता अच्छे से निभाता है।

आज अनु और अरुण ने यह साबित कर दिया कि वह इंसान अच्छे हैं और उनमें इंसानियत की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है।

अनु और अरुण के ऐसी मानसिकता के पीछे उनके माता-पिता की परवरिश का भी बहुत बड़ा हाथ है। हम जब एक बच्चे को परवरिश में संस्कार देते हैं तो अक्सर बेटा और बेटी को संस्कार देते हुए थोड़ा भेदभाव कर देते हैं। जहां बेटियों को ससुराल जाकर उसने रिश्तों को अपनाना सिखाते हैं और सास-ससुर के प्रति जिम्मेदारी निभाना सिखाते हैं। वही बेटों को हम ज़िम्मेदार नहीं बनाते हैं। उन्हें कोई जिम्मेदारी का अहसास कराने से हिचकते हैं। इसलिए समाज में इतनी विसंगतियां पैदा होती हैं।


*अगर हम बेटों को भी बेटियों की तरह संस्कार दें और जिम्मेदारी का अहसास कराए तो रिश्तों में परस्पर समन्वय बना रहेगा और इस साझेदारी से विवाह जैसी संस्था बहुत ही सफलतापूर्वक चल पाएगी।

बात सिर्फ बुजुर्गों के देखभाल की नहीं है। बल्कि बात नए रिश्ते के साथ की जिम्मेदारी की है। और जब दो लोग परिणय सूत्र में बंधते हैं तो विवाह एक बंधन ही नहीं है एक ऐसा संस्कार होता है जब एक दूसरे की जिम्मेदारी को भी अपनाना पड़ता है। सारे कमी बेसी के साथ एक को भरे पूरे इंसान को अपने आप में अपनाकर चलना पड़ता है। तभी एक रिश्ता और विवाह संपूर्ण होता है और संपन्न होता है।

(समाप्त)



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