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दौराहा

दौराहा

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अल्हड़ किशोरी रंभा।

यथा नाम, तथा रूप। मैं बाँका नवयुवक। बस, चोरी चोरी एक दूसरे को देखने लगे, फिर चोरी चोरी मिलने लगे, चोरी चोरी किताबों में भेजने लगे प्रेम पत्र। प्रेम परवान चढ़ने लगा। साथ जीने-मरने की कसमें खाने लगे। मेरे मित्र उसे भाभी का सम्बोधन देने लगे। उसकी सहेलियाँ मेरे नाम से उसे छेड़ती।

प्रसंग थोड़ा आगे बढ़ता कि अम्मा ने रोना धोना शुरु कर दिया, बाबूजी ने हुंकार भरी। न जाति की, न पांति की, बराबरी न बिरादरी की,अरे लोग क्या कहेंगे, समाज में क्या मुँह दिखाएँगे।

विरोध का ज्वालामुखी और भड़कता कि मैंने आत्म समर्पण कर दिया। बाजे गाजे के साथ और ट्रक भर दहेज लेकर रानी इस घर मे आ गई पर रंभा में रमा मेरा मन, रानी को उपेक्षित करता रहा। गज़ब की तपस्वनी निकली रानी।

पूरे परिवार के साथ मैं भी उस पर प्रसन्न हो गया। रंभा पीछे छूट गई। मुझे याद है जब हमारी सुन्दर सी बिटिया हुई, रानी ने पूछा की बिटिया का नाम रखो। अनायास अवचेतन से एक नाम उभर आया, रंभा। बिटिया का शहर के जाने माने स्कूल में एडमिशन कराने गया। प्राचार्य कक्ष के बाहर नेम प्लेट देख चौंका।

"मिस रंभा।"

अंदर रंभा ही थी। अवाक थे दोनों। सहज हुई वो, बिटिया को दुलार कर पूछा,"नाम बताओ बेटा"

"रंभा।"

वो मुस्कराई। प्रवेश के बाद मैं घर आ गया। रानी ही बिटिया को छोड़ने और लेने जाती। मुझमे अपराधबोध भर गया। रंभा ने अपना विवाह नहीं किया। डरता था अगर आमना सामना होता है। मैं नज़रें न मिला पाऊंगा।

रानी ने बताया, बिटिया की स्कूल की प्रिंसिपल का ट्रांसफर हो गया। वे चली गईं। मैं जानता था। रंभा यहाँ रुकेगी नहीं।

स्त्रियों का मनोबल बहुत मज़बूत होता है। वो कभी दौराह पर नहीं खड़ी रहती। अपना एक निर्णयात्मक मार्ग चुन उस राह पर चल पड़ती है। मेरा मन रानी, रंभा और संपूर्ण स्त्री जगत के लिये श्रद्धा से भर गया।


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