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ARUN DHARMAWAT

Drama Tragedy

1.3  

ARUN DHARMAWAT

Drama Tragedy

अन्नदाता

अन्नदाता

2 mins
456


"देखो रामदीन...ये तीसरा साल है जब तुमने न ब्याज चुकाया और न कर्ज़ की किश्त अदा की, मजबूर होकर बैंक को तुम्हारी ज़मीन कुर्क करके नीलाम करनी पड़ेगी।" रामदीन बोला "देखो साब म्हारी जमीं म्हारी मायड़ है, इने कियाँ बेच सकूं, पाणी की छांट भी कोनी पड़ी, घणी मुसीबत होगी, नीं पीबा रो पाणी, नीं जिनावरां न चारो, अर टाबरां न भूखे मरणे की नोबत आगी है।" "देखो रामदीन...हम मजबूर हैं, हम तो कर्मचारी हैं हमारे हाथ में कुछ भी नहीं, हम कुछ नहीं कर सकते, सरकारी आदेश का पालन करना हमारी ड्यूटी है।" "आ किसी सरकार है, आ किसी ड्यूटी है जो एक किसान न बी री ज़मीन स्यूँ बेदखल कर री है, म्हारा टाबर टोली कठ्ठे जासी, भगवान भी बेरी होग्यो है, जो बरसात की छांट भी कोनी पड़ी है, च्यारूं मेर सूखों अर काळ पड्यो है मिनख त्राहि त्राहि कर रियो है, अर सरकार न कर्जो वसूलणे की पड़ी है, अरे बोट माँगबा आवे है जद तो घणी घणी बातां करे है, अर अब म्हां गरीबां पर दुगणि मार करे है, ई पाणी के भीतर कित्ती आत्मा तड़प री है थांने अंदाजों भी कोनी।" कुर्की के कागजों पे अंगूठा लगा कर रामदीन बदहवास सा चला जाता है, इस पानी के भीतर की व्यथा को कहने के लिए, एक और लाश को फंदे पे झुलाने की तैयारी में।


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