शोले का गौरव-जय
शोले का गौरव-जय
प्रतिदिन की ही भांति मेरे प्रिय मित्र गौरव आज भी बड़ी प्रसन्न मुद्रा में लग रहे थे।आज के करोना काल में ही नहीं हम दोनों हमेशा से ही एक दूसरे को देखते ही दूर से दोनों हाथ जोड़कर एक दूसरे का अभिवादन करते हैं। हम दोनों में से कोई भी अभिवादन के लिए किसी दूसरे की पहल का इंतजार नहीं करता बल्कि जो पहले देख लेता है वही अभिवादन की पहल करता है। शुरुआती दिनों में तो गौरव ने मुझसे ये शिकायत कई बार की थी कि आप हमसे आयु में बड़े हैं फिर भी पहले अभिवादन करते हैं तो मुझे शर्मिंदगी महसूस होती है । मैंने उन्हें समझाया था कि अभिवादन तो दोनों ने एक दूसरे का करना ही होता है फिर हर आदमी अव्वल आना चाहता है ।यह समझाने के लिए उस कहावत का भी सहारा लिया था जिसमें कहा गया है कि ' काल्ह करे सो आज कर, आज करे सो अब। पल में परलय होएगी ,बहुरि करेगा कब'। फिर विलम्ब करना बुरी आदतों में शामिल है और साथ ही यह भी समझाया कि मुझे नहीं लगता कि तुम अपने बड़े भाई मैं कोई बुरी आदत देखना पसंद करोगे। साथ ही हमारा यह दायित्व बनता है कि हम अपने सामने वाले व्यक्ति में विशेष कर अपने से छोटो में जो सद्गुण देखना चाहते हैं उसे पहले अपने आचरण में लाकर दिखाएं। कहा भी गया है कि प्रभावी शिक्षा भी वही होती है जो वाणी से नहीं बल्कि आचरण से दी जाए। गौरव ने थोड़े से शिकायती लहजे में अपने मनोभाव व्यक्त किए कि ज्यादातर आप मुझे जीतने का अवसर नहीं देते हैं।
"मुझे आपसे बात करके बड़े हर्ष की अनुभूति होती है।"-अपनी चिर परिचित मुस्कान के साथ गौरव ने मुझसे कहा।
"मुझे भी अत्यधिक ही हर्षानुभूति होती है क्योंकि आप हमारी बात सुन लेते हैं ।आज के व्यस्त समय में किसी के पास इतनी फुर्सत नहीं है कि वह दूसरे की बात सुन सके। हर आदमी अपनी-अपनी बात सुनाना चाहता हूं। फिर साहित्य में रुचि रखने वालों की समस्या 1 लोगों की तुलना में ज्यादा जटिल होती है । वे अच्छा श्रोता पाने के लिए बड़े ही व्यग्र रहते हैं कि कोई उनकी बात को मात्र सुन ही ले। आप तो हमारी बातों को सुनकर हमारी प्रशंसा को बड़े ही अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से करते हैं। तुम्हारे जैसा श्रोता दीपक लेकर ढूंढने पर भी न मिले। यह भी मेरा परम् सौभाग्य है कि कुआं खुद प्यासे के पास चलकर आ जाता है।अब तुरंत ही देख लो कि तुम्हारे छोटे से एक वाक्य के बदले कितना लम्बा चौड़ा भाषण दे डाला।"- मैंने गौरव को मुस्कुराते हुए अपनी हर्षानुभूति भावना को व्यक्त करते हुए कहा।
"आज तो मैं आपसे किसी फिल्म के ऐसे पात्र के बारे में जानने के लिए आया हूं जिसका अभिनय और चरित्र आपको प्रिय लगा हो"।-गौरव के चेहरे की मुस्कुराहट उसके मन के भावों को व्यक्त कर रही थी।
मैंने गौरव से कहा-" अच्छे साहित्य की तरह अच्छी फिल्म के निर्माता और निर्देशक की यह एक सामाजिक जिम्मेदारी होती है कि वह समाज को प्रेरित करने वाली, समाज में व्याप्त कुरीतियों ,और सामाजिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करती हुई फिल्म बनाकर समाज को एक सही निर्णायक दिशा दें। एक अच्छी फिल्म वही कही जाएगी जो मनोरंजन करते हुए बड़े ही रोचक तरीके से समाज में व्याप्त समस्याओं की ओर समाज का ध्यान आकर्षित करते हुए उचित समाधान भी प्रस्तुत करे जिससे प्रेरित होकर लोग उन बुराइयों से अवगत हों।अपने आचरण और व्यवहार में इन सामाजिक बुराइयों से बचते हुए समाज को उचित दिशा में ले जाने में अपना योगदान दे सकें।"
गौरव ने अपनी हार्दिक अपेक्षा और उत्कंठा को प्रकट करते हुए कहा-"वर्तमान समय में फिल्म बनाना भी एक व्यवसाय बन गया है। बहुत सारी फिल्में बनती हैं फिल्म निर्माता लाभ को ध्यान में रखते हुए मसालेदार बनाते हैं ।जिनमें बहुत सारे फूहड़ संवादों और दृश्यों की भरमार होती है।वे सस्ता मनोरंजन प्रस्तुत कर फिल्म को कमाई का माध्यम बनाने के लिए सारे हथकंडे अपनाते हैं।आज पहले जैसी शिक्षाप्रद और उत्कृष्ट फिल्में लगभग न के बराबर बनती है। उत्कृष्ट फिल्मों का अभाव से खलता है ।आपने अपने समय की फिल्में देखी होंगी और मैं चाहूंगा कि आप ऐसी ही किसी फिल्म के पात्र के बारे में बता कर मुझे जानने का उचित अवसर प्रदान करेंगे।"
"गौरव ,यहां हमारे नीर-क्षीर विवेक के लिए ज्ञानयुक्त शिक्षा की भूमिका अति महत्त्वपूर्ण हो जाती है। निर्माता फिल्म बनाने में अपने धन का निवेश करता है।वह कोई घाटे का सौदा तो करना नहीं चाहेगा इसलिए उसे हर वर्ग के दर्शकों की इच्छाओं को ध्यान रखते हुए अपनी फिल्म में उनकी पसंद के अनुसार विविधता पूर्ण सामग्री का समावेश करना ही होगा।दुनिया की हर बुरी से बुरी चीज में भी कुछ न कुछ अच्छाई भी होती ही है और अच्छी से अच्छी चीज में कहीं ना कहीं कोई बुराई ढूंढी जा सकती है।अब यह दर्शकों के दृष्टिकोण पर भी निर्भर करता है कि वे उससे क्या सीखते हैं ?"
मैंने मुद्दे की बात पर आते हुए कहा-"अब और अधिक विलम्ब न करते हुए तुम्हें बताना चाहूंगा कि 1975 में 198 मिनट की अवधि वाली एक्शन फिल्म'शोले' जो रमेश सिप्पी के निर्देशन में बनी थी। जिसके दो मित्रों ' जय - वीरू' की जोड़ी की भूमिका अंतर्मन: अमिताभ बच्चन और धर्मेंद्र ने निभाई थी। हालांकि धर्मेंद्र इस फिल्म के नायक थे पर मुझे जय का रोल अधिक भाया।मुझे तुम्हें यह बताने में भी कोई हिचक नहीं हो रही है कि जब मैंने पहली शोले देखी थी तब फिल्मों के बारे में मेरी जानकारी भी लगभग न के बराबर थी और लंबे समय तक मैं अमिताभ बच्चन को ही फिल्म का नायक समझता रहा था। वैसे किसी भी पात्र के सृजन का काम पटकथा लेखक का होता है और उसका प्रस्तुतीकरण निर्देशक पर निर्भर करता है। संवादों की गंभीरता भी संवादों को लिखने वाले पर निर्भर करती है।"
गौरव ने अपनी जिज्ञासा व्यक्त की-"जय के पास धोखा देने वाला सदा जिताने वाला जो सिक्का था। उसे आप किस प्रकार उचित ठहराएंगे।"
मैंने कहा-"फिल्म में निर्णय के लिए जय ने जेल जाने और घायल इंस्पेक्टर की जान बचाने के लिए उसे अस्पताल पहुंचाने के दो विकल्पों में से उसे अस्पताल ले जाने का विकल्प चुना था जो उस पात्र की मानवीय संवेदना को प्रकट करता है। ऐसे में उसने अपनी जीत मानवीयता से परिपूर्ण व्यवहार करने के लिए की थी। दूसरी बार में जीवन और मौत में से किसी एक को चुनने की बारी थी। डाकुओं के साथ चल रही अभी मुठभेड़ में गोलियां लगभग खत्म हो रही थीं। वहां पर भी जय ने अपने मित्र की बजाय अपने जीवन का बलिदान कर देने की भावना ही प्रदर्शित की थी ।उसे पता था कि वीरू और बसंती का एक दूसरे के प्रति बहुत अधिक स्नेह है ।वहां पर भी उसने अपने मित्र को मौत के मुंह से बचाने के लिए स्वयं मौत को गले लगाने का विकल्प चुना था। आपने सेठ गोविंद दास द्वारा लिखे गए एकांकी 'सच्चा धर्म' में भी पुरुषोत्तम राव व्यक्तिगत धर्म को महत्त्व प्रदान करते हैं और शिवाजी के पुत्र सम्भाजी की रक्षा के लिए वह उसके साथ एक ही थाली में भोजन कर लेते हैं जबकि सामाजिक धर्म एक ब्राह्मण को गैर ब्राह्मण के साथ भोजन करने की अनुमति नहीं देता। वे अपनी संपूर्ण आचार निष्ठा को त्याग कर अपने व्यक्तिगत मूल्य और सामाजिक मूल्य की रक्षा करते हैं ।यहां पर असत्य सत्य से बढ़कर हो जाता है क्योंकि उस समय राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रधर्म की मांग यही थी। ठीक इसी प्रकार जय ने भी व्यक्तिगत धर्म को चुना जो उसके सही निर्णय के लिए उसे आदर्श पात्र की भूमिका प्रदान करता है।"
" क्या जय का ठाकुर बलदेव सिंह की विधवा बहू राधा के साथ विवाह करने का प्रस्ताव सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन नहीं था? - गौरव ने जानना चाहा।
"बिल्कुल अगले सही मुद्दे की ओर तुम्हारा ध्यान गया। हमारे समाज में किसी लड़की के युवावस्था में ही विधवा हो जाने के बाद वंश और समाज की परंपराओं के निर्वहन के नाम पर जो आजीवन मानसिक और सामाजिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती थी। यही उसी दिशा में एक सार्थक कदम था। कई समाज सुधारकों ने सती प्रथा को खत्म करने की बात कही। विधवाओं के पुनर्विवाह की आवश्यकता पर बल दिया गया। जय ने भी ठाकुर साहब की विधवा बहू के साथ विवाह करने का प्रस्ताव करके एक अच्छी पहल का प्रयास किया। यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा इसको अमलीजामा पहनाने से पूर्व ही काल के गाल में समा जाता है। इस भावना को जय ने एक वीरान जिंदगी में फिर से बहार लाने के प्रयत्न को प्रदर्शित किया।"
"इसके अतिरिक्त और किन दृश्यों के माध्यम से आप जय को अपनी पसंद का पात्र समझते हैं?"- गौरव ने कथानक को छोटी-छोटी किश्तों की एकमुश्त किश्त चुनने का स्पष्ट संकेत मुझे दे दिया।
मैंने संक्षेप में उन्हें समझाते हुए बताया-"वीरू को शंकर भगवान की मूर्ति के पीछे से आकाशवाणी करते समय उसकी पोल खोलकर अपने प्रिय मित्र की ही धोखे की योजना का पर्दाफाश किया।हर डायलाग में बार-बार अपना की बार नाम बोल चुकी बसंती जब अपना नाम न पूछने की बात कहती है तो वह झल्लाने की बजाय औपचारिक तौर पर उसका नाम पूछ लेता है जो उसकी गहरी मानवीय संवेदना का परिचायक है।एक दृश्य में ठाकुर साहब की बहू राधा एक बकरी के बच्चे को पकड़ने के लिए दौड़ते हुए तक जाती है पर वह उसके हाथ नहीं आता है।तब वह बकरी के बच्चे को पकड़ कर उसे सौंप देता है ।यह भी उसकी सहयोग पूर्ण मानवीय भावना का द्योतक है। होली के त्योहार में गांव पर आक्रमण के दृश्य में वह अपनी सूझबूझ और नियोजन की समझदारी वाले निर्णय को प्रदर्शित करता है।जब वह डाकू गब्बर सिंह की आंख में रंग भरकर हारी हुई बाजी को जीत में बदल देता है। फिल्म में वीरू की भूमिका एक कॉमेडियन की रही थी जबकि जय की भूमिका एक गंभीर पात्र के रूप में रही।"
"निश्चित रूप से से आपने एक सह नायक को फिल्म के नायक के रूप में प्रस्तुत कर दिया। आपके इस प्रस्तुतीकरण से जय की मौत के साथ समाप्त होने पर यह दुखांत फिल्म हो जाती है।श्लाघनीय है आपका विश्लेषण।"- यह कहते हुए गौरव ने विदा ली।