उसका बचपन और मैं पचपन...
उसका बचपन और मैं पचपन...
सुबह घर से निकलने के बाद, पूरा दिन ऑफिस के काम निपटाने में निकल जाता है। कैसे शाम आ जाती है, कुछ पता ही नहीं चलता। फ़िर, जब अँधेरा घिरने वाला होता है, तभी घर पहुँचना होता है। वैसे, ऐसा तो कई सालों से होता आ रहा है। पर, अब जैसा तो पहले कभी न हुआ।
अब जैसा पहले कभी नहीं हुआ, क्योंकि पहले वो मेरी ज़िन्दगी में नहीं थी। सच कहूँ, जब से ये मेरी बेटी मेरी ज़िन्दगी में आयी है, ज़िन्दगी के तो जैसे मायने ही बदल गये।अभी बस आठ महीने की पूरी हुई है वो!पर अभी से सबकुछ एकदम अच्छे से पहचानने लगी है। घर का दरवाजा खुलता है, मैं दहलीज़ पर कदम भर रखता हूँ और उसे मेरी शक्ल दिखती है, ऐसे खिलखिलाकर हँसती है, मानो दुनिया भर की खुशियाँ उसके सामने लाकर रख दी गयी हों। और फ़िर, बस जो गोद में उठा लो उसको... आये-हाये... मानो दुनिया में तो और कुछ भी इससे बेहतर है ही नहीं। न उसके लिये और न ही मेरे लिये।जाने कितनी देर मेरे सीने से लगी बस खिलखिलाती रहती है। पर, यूँ ही खिलखिलाते रहने से ही तो ज़िन्दगी पूरी नहीं हो जाती।
सोना, जागना, तरह-तरह के काम, खाना-पीना, फिर घूमना-नाचना, सबसे मिलना, मस्ती करना, ये सबकुछ ही तो ज़रूरी होता है इस ज़िन्दगी में। ऐसे ही ढेर सारे कामों में से अक्सर उसे खाना खिलाने का काम मेरी ज़िम्मेदारी होता है।तो फ़िर, हर बार की तरह, आज भी खाना ही तो खिला रहा था उसको।जैसे रोज खिलाता हूं, बिल्कुल उसी तरह। पहले चम्मच से खिलाना शुरू किया। फिर, शायद उसका आज इस तरह खाने का मन नहीं था, तो उसकी मनपसंद दवा के ड्रॉपर से ये लिक्विड डाइट खिलाने की कोशिश की। पर उसे तो जैसे खाना ही नहीं था। तभी तो उसने तो जैसे ज़िद्द में होठ पर होठ भींच रखे थे।
अब दाँत तो थे नहीं, तो जितनी भी ताकत थी, उससे होठ आपस में इस तरह भींच रखे थे कि मैं कुछ भी करके मुँह में कुछ डाल न दूँ। पर उसकी ज़िद्द को ऐसे भला कैसे मान लेता मैं! आखिर मैं भी तो बाप था उसका। तो, काफ़ी कोशिशें करके भी जो वो मुँह खोल खाने को राजी न हुई, तो हाथों को भी आज़मा लिया। उसके गाल दबाकर मुँह में जबर्दस्ती वो निवाला ठूँसने की कोशिश की, जो मुझे उसे खिलाना था। वो रो पड़ी। एक पल को मैं जैसे सहम सा गया। थोड़ा बहुत जैसे मैं पसीज भी गया। पर उसे खाना तो खिलाना ही था। चाहे वो रो भी रही थी, मुझे उसे खाना खिलाना था।
मैं तो बस ये कोशिश कर रहा था कि मेरी बेटी खाना न खाने की ज़िद्द न करे। और वो ज़िद्द न करे, इसलिए उस पल मैं उसको बहलाना, फुसलाना सब भूल गया। वो रोती रही और मैं उसके गालों को दबा-दबाकर, हल्के से खुलते मुँह में जबर्दस्ती खाना ठूँसता रहा। और ये तो कतई मेरी ज़िद्द नहीं थी, क्योंकि मैं तो अनुभव के साथ बड़ा हो चुका समझदार इन्सान था।
जब सारा का सारा खाना मैंने बेटी के मुँह में ठूँस लिया, मेरे दिल को चैन पड़ गया कि मैंने उसको खाना खिला लिया है। अब उसे मैंने गोद में ऊँचा उठाकर उसका चेहरा देखा। आँखों में आँसू इस तरह छलछला उठे थे कि पूरे गाल आँसुओं से भीग गये थे। पर, एक बार फिर से मेरा चेहरा देखते ही वो खिलखिला पड़ी। आँसुओं से भीगे गालों के साथ अब वो हँस रही थी। और हँसते-हँसते ही उसे जाने कैसे एकदम से ऐसी खाँसी आयी कि जो भी मैंने खिलाया था, जो भी उसके पेट में गया था, सब एक उबकाई के साथ बाहर आ गया। उसने एक बार को मुँह बनाया। पर, फ़िर अगले पल ही हँस पड़ी।
बेटी की इस हँसी को देखकर, अब मैं भी हँस रहा था। पर, मैं अब बेटी के लिए नहीं, बल्कि खुद के ऊपर हँस रहा था। खुद की नादानी पर हँस रहा था। अनजाने में ही बेटी के सिखाये 'सबक' और खुद के ज़िद्दीपन पर हँस रहा था। क्योंकि ज़िद्दी मेरी बेटी नहीं, बल्कि ज़िद्दी तो मैं था! अपनी ज़िद्द के आगे बेटी के दर्द को भी न समझने वाला ज़िद्दी!!!