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अकेलापन...साथ सिर्फ यादों का

अकेलापन...साथ सिर्फ यादों का

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अधेड़ उम्र के बाबूजी ना जाने दरवाजे पर टकटकी लगाए किसकी राह ताकते रहते, कf शायद कोई उनका अपना कभी आएगा और उन पर अपना पूरा हक़ रखकर कहेगा,

“अब आप अकेले नहीं रहेंगे,चलिए हमारे साथ।” लेकिन शायद ये बात वो भी जानते थे कि यह कभी संभव नहीं होने वाला।

सात साल बीत चुके थे जब धर्मपत्नी की अचानक से तबियत खराब हुई। अस्पताल ले जाया गया परन्तु शायद बहुत देर हो चुकी थी। दिमाग में खून का थक्का जमने की वजह से वो अचेतन अवस्था में पहुँच चुकी थी। मानो की बस साँसों का साथ था वो भी कुछ दिनों बाद टूट गया था। बहुत कोशिश की थी बाबूजी ने की आखिरी के दस रुपए भी लगा देंगे। बस, किसी तरह उनका साथ न छूटे लेकिन शायद कभी-कभी हमारी दिल से माँगी दुआ भी भगवान तक नहीं पहुँच पाती।

बस मानो यही हुआ था उनके साथ। धर्मपत्नी के अंतिम संस्कार पर कभी ना रोने वाले बाबूजी की आँखों से आँसू शायद रुकने को तैयार ना थे, अभी भी एक उम्मीद बाकी थी कि उनका जीवन साथी लौट आये। लेकिन जाने वाले कब लौट के आते हैं भला।

साथ छूटने के साथ साथ उम्मीदें टूटती गयी। यहाँ तक कि उनकी शादी की वर्षगांठ के दिन बाबूजी ने अपनी धर्मपत्नी की अस्थियां प्रवाह करने हरिद्वार गए। कैसा दुःखद समय था। क्या उन्होंने कभी सोचा था कि जिस दिन अपनी जीवनसाथी को ब्याह कर उम्र भर साथ निभाने के लिए अपने घर लेकर आये थे उसी दिन पैंतिस सालों बाद उनको सदैव के लिए अपने से अलग करने जा रहे हैं।

धीरे-धीरे पंडित भोज के बाद सब अपने अपने घर चले गए थे। बस रह गया था तो अकेलापन।

ऐसा नहीं था कि वो निःसन्तान थे। ऊपर वाले कि कृपया से एक बेटा और एक बेटी के पिता बने थे वो। एक समय में बड़े ही सख्त स्वभाव के इंसान थे जिनकी किसी से कोई ज्यादा बातचीत रखने की दिलचस्पी न होती थी। हर काम सही समय पर करने की अच्छी आदत थी उनमें। रोज़ सुबह जल्दी उठ कर तैयार होकर अपने दफ़्तर की और निकल पड़ते। आखिर सरकारी नौकर जो ठहरे।

नौकरी का समय खत्म होते ही सीधे घर को लौट आते। बहुत ही सादा सा जीवन व्यतीत करते थे वो। वक़्त के बीतने के साथ-साथ अपने दोनों बच्चों की शादी करके अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो गए थे दोनों। बेटी अपने ससुराल में खुश थी तो बेटा अपनी बीवी को लेकर कंपनी की तरफ से जॉब करने के लिए इंडिया से बाहर सेटल हो गया था। अब बाबूजी भी नौकरी से रिटायर्ड हो चुके थे।

मानो कि अब ही तो जीवन जीना शुरू किया था दोनों ने। दोनों एक-दूसरे के साथ समय बिताते। घर का सामान लेने साथ जाते। कभी-कभार टहलने के लिए पार्क हो आते। यहाँ तक कि अब तो बाबूजी अपनी धर्मपत्नी का रसोईघर में भी हाथ बँटाना सीख गए थे। वो उनको हर खुशी देते जो शायद अपनी शादी के बाद जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते उन्हें देना भूल गए थे,…यूँ लगता कि दोनों की ज़िंदगी एक-दूसरे के इर्दगिर्द ही सिमट गई है।बाबूजी ने धर्मपत्नी की चार धाम की यात्रा करने का सपना भी पूरा कर दिया था। लेकिन क्या पता था कि दोनों का साथ उनका सपना पूरा होने के कुछ दिनों बाद ही छूट जाएगा। व रह जायेगी तो यादें और अकेलापन।

बिटिया रानी तो अपने ससुराल की जिम्मेदारियों के बोझ तले इतनी दबी हुई थी कि उसका बार-बार घर आना संभव ही न हो पाता व अगर आती भी तब भी वापिस लौटना पड़ता….व बेटे को तो माँ के देहांत के कुछ दिनों बाद ही विदेश लौटना पड़ा था।अब इस अकेलेपन में बाबूजी कोशिश तो करते खुद को व्यस्त रखने की। कभी पार्क जाकर अपने दोस्तों के साथ समय व्यतीत करते तो कभी मन की शांति के लिए मंदिर जाकर बैठ जाते लेकिन जब भी घर वापिस आते वो अकेलापन उन्हें काटने को दौड़ता। खुद को व्यस्त रखने के लिए अपने लिए दो वक़्त की रोटी भी स्वयं बनाते। अकेलेपन में अपने साथ के सुनहरे पलों को याद करके आँखों से आँसू भी झलक पड़ते लेकिन शायद वो ये जान चुके थे कि शायद इसी का नाम ज़िन्दगी है।

याद आती थी उन्हें वो बातें जब उनकी धर्मपत्नी कहती थी कि मेरे जाने के बाद कौन रखेगा उनका ध्यान ?बाबूजी हर बार हँस के यह कह कर टाल देते की हम साथ ही जीयेंगे और साथ ही मरेंगे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ था।

पत्नी के देहांत के बाद जान चुके थे वो की सही कहती थी वो अब उन्हें अकेले ही जीवन का बचा हुआ समय उन खूबसूरत यादों के सहारे काटना है। उनके इस दर्द को बाँटने वाला और उनके अकेलेपन को दूर करने के लिए कोई नहीं आएगा।

अब तो उनकी आँखें भी थक चुकी थी किसी अपने की राह ताकते-ताकते।और तो और शायद भगवान के द्वारा भी बाबूजी को उनके पास बुला लेने की अर्ज़ी भी बार बार नामंजूर होती नज़र आ रही थी।


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