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अपना घर

अपना घर

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ठाकुर जगदीश प्रसाद बार बार कमरे में चक्कर लगा रहे थे। कुछ भी समझ नहीं आ रहा था उन्हें। आखिर बेटी की जिंदगी का सवाल था। शादी जैसे महत्वपूर्ण मामलों में फैसला एकदम से कैसे लिया जा सकता है? शुचिता तो अभी नासमझ है। अब यह क्या बात हुई कॉलेज में पढ़ते हुए प्यार हो गया, तो शादी कर दो उसी लड़के से। वैसे तो कुशल में कोई कमी नहीं थी। पच्चीस वर्षीय, गोरा, सजीला बांका छोरा था। अभी अभी शुचिता के कॉलेज से ही एम काम कर एक प्राइवेट बैंक में नौकरी भी लग गई थी। पर सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि बचपन से ही पिता का साया सिर से उठ जाने पर मां ने बड़ी मुश्किल से सिलाई कढ़ाई का काम कर पढ़ाया लिखाया था। उच्च शिक्षा के लिए शहर में भेजने की ख़ातिर गांव में अपनी छोटी सी खोली भी बेच दी थी और किराए के एक छोटे से मकान में गुजारा कर रहे थे। ऐसे में भला नाजों से इतनी बड़ी हवेली में पली बढ़ी उनकी लाडली इकलौती बेटी शुचिता का हाथ कैसे उसके हाथ में सौंप दें। बस इसी उहापोह में थे सुबह से क्योंकि आज शाम कुशल अपनी मां के साथ उनकी हवेली में आने वाला था शुचिता का हाथ मांगने।

"अरे अब इतना क्या सोचना? मैं तो कह रही हूं सीधे मना कर दो। आपने शुचिता को इतनी ढील न दी होती, तो आज यह नौबत ही नहीं आती। पर नहीं, आपकी लाडली जो ठहरी। अरे मैं पूछती हूं कि कौन से मां बाप होंगे, जो अपनी बेटी का हाथ ऐसे लड़के के हाथ में देंगे, जिसके सिर पर अपनी छत्त भी न हो।" ठकुराइन चिल्ला रही थी सिर पर आकर।

"मुझे कुछ सोचने तो दो। तुम जाकर शाम के लिए तैयारी करो। और सुनो, मेहमान नवाजी हमारी प्रतिष्ठा के अनुकूल ही होनी चाहिए।"


उधर सावित्री ने जैसे ही कुशल के साथ हवेली के प्रांगण में कदम रखा, तो एक पल के लिए सकुचा गई। बाहर बहुत बड़ा बगीचा रंग-बिरंगे फूलों की खुशबू से सराबोर, दोनों तरफ रौशनियों से लेस बड़े बड़े फव्वारे, दो चमचमाती गाडियाँ और मुख्य दरवाज़े पर खड़ा दरबान एक पल के लिए कदम ठिठक गए वहीं पर।

"चलो न मां, क्यों रुक गई?


"अरे, यह कहां ले आया बेटा? इतनी बड़ी हवेली में रहने वाली अपनी बेटी को कोई हमें क्यों सौंपेगा? छोड़ यह प्यार व्यार का चक्कर। चल वापस चलते हैं।"

"अरी मां! कैसी बातें करती हैं आप? शुचिता को सब पता है हमारे बारे में। और फिर मैं किसी लालच में थोड़ी उससे शादी कर रहा हूं? मैंने स्पष्ट बोल दिया है उसे कि शादी बिल्कुल सादगी से बिना दहेज़ के होगी। "कुशल ने बेहद आत्मविश्वास भरे लहज़े से कहा और दोनों अंदर चल पड़े।


शुचिता और कुशल के लिए तो यह एक बहुत बड़े इम्तेहान की घड़ी थी। उनके जीवन का एक बहुत बड़ा फैसला आज होना था। एक ओर शुचिता का अनुपम सौंदर्य और शालीनता थी, तो दूसरी तरफ कुशल के संस्कार और स्वाभिमान.. दोनों तरफ से ना की कोई गुंजाईश नहीं बची थी।

"वो सब तो ठीक है, पर हमारी बेटी उसका छोटे से दो कमरे के किराए के मकान में कैसे रह पाएगी?" ठकुराइन ने आखिरी पासा फेंका।

"मांजी, बस कुछ समय दीजिए मुझे। कुछ बचत हो जाने के बाद बैंक से कर्ज़ लेकर अपना छोटा सा फ्लैट किस्तों पर लेने का विचार है मेरा। शुचिता को पता है इस बारे में।" कुशल ने विनम्रतापूर्वक कहा।

"और फिर सारी उम्र वे किस्तें जमा करने में पिसती रहेगी मेरी बेटी।"

"तुम जरा चुप रहो ठकुराइन। बेटा, मेरी मानो तो तुम गाँव में खाली पड़े मेरे मकान में शिफ्ट हो सकते हो।"


"मतलब आप अपनी बेटी को दहेज़ के साथ विदा करना चाहते हैं।" कुशल थोड़ा तैश में आ गया था।

"अरे बिल्कुल नहीं बेटा। शुचिता ने पहले ही सब कुछ बता दिया था मेरे को। तुम्हारा स्वाभिमान आहत न हो, इस का पूरा ध्यान है मुझे। मेरे पुराने मुंशी जी स्वास्थ ठीक न होने की वजह से काम छोड़ रहे। तो तुम अपने खाली समय में मेरी दोनों फैक्ट्रीयों का हिसाब किताब देख लेना। उसकी तनख्वाह मैं कर्ज़ की किस्त समझ काटता रहूँगा, जब तक तुम अपनी बचत से पूरा लोन नहीं चुकाया देते। क्यों ठीक है न?" कुशल ने कनखियों से शुचिता की ओर देखा, जो बड़ी हसरत से उसी को ताक रही थी, तो हां में सिर हिलाने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं था कुशल के पास।


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