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Beena Ajay Mishra

Abstract Tragedy

4.8  

Beena Ajay Mishra

Abstract Tragedy

रफ़ीक ऐसा नहीं था !

रफ़ीक ऐसा नहीं था !

3 mins
303


लगभग 3 वर्षों के बाद मैं रीवगंज गई थी। रीवगंज से मेरा परिचय हमारे विवाहोपरांत पतिदेव ने ही करवाया था। प्रकृति का समूचा आशीर्वाद मानो इस नन्हे से आँगन में बरबस ही समाया हुआ था लेकिन मुझे यहाँ कुछ ऐसा नहीं दिखता था जो स्मृति बन जाने योग्य रहा हो। सच कहूँ तो यह जगह मुझे कभी पसंद आई ही नहीं थी। शायद भीड़ से लगाव इस तरह हावी था कि सौंदर्य की परख करने वाली आँखों की क्षमता क्षीण हो चुकी थी। हाँ ! एक बात थी जो भुलाए न भूलती थी वह थी रफ़ीक की बिना सिर पैर की गोलमोल बातें। मेरी आश्चर्य से विस्तृत हुई आँखों को उसके तटस्थ उत्तर थोड़ा और विस्तार दे देते-" मैडम ऐसा ही है। किसी भी गिरते हुए को यूँ थाम लो तो वह ऊपर उठ जाता है" और अपने हाथ आसमान की ओर उठाए वह जाने किसे थाम लिया करता??? मैं अचंभित सी रह जाती। रफ़ीक का व्यक्तित्व मेरी समझ से परे था। न व शिक्षा का धनी था, न ही उसके पास सामाजिक सलीके थे।

फिर ऐसी बड़ी-बड़ी बातें वह कैसे कर लेता था? मैं सोच में थी कि उसके शब्दों ने मुझे पुनः एक बार झंझोड़ दिया " कॉफ़ी और जूस की दुनिया से बाहर निकलिए मैडम जी। आसमान से गिरती बूँदों में रूह तक पहुँचने का जज़्बा होता है।" वह शुरू हो जाए तो चुप नहीं होता था। मैं ही चुप रह गई और हल्की सी मुस्कुराहट फेर कर बाहर निकल लाॅन में टहलने लगी। पति हर वर्ष दफ़्तर के काम से यहाँ आते और उनके कमरे की देखरेख रफ़ीक के ही ज़िम्मे आती। मानो ईश्वर ने जिन कुछ बातों को क्रमवार सजा रखा था उनमें एक था रफ़ीक का इन से मिलना तभी तो शायद मैं भी उससे मिल पाई थी। गज़ब का व्यक्तित्व था उसका, दौड़-दौड़ कर सारा काम कर आता था। अपने भी दूसरों के भी।

मजाल है थक जाए। उसके थकने का तो भ्रम भी मुश्किल ही था। उसके विषय में जानने की इच्छा जाग्रत हुई जो निराधार नहीं थी। शायद उससे मिलने वाला हर व्यक्ति उसे जानना चाहता। लेकिन इतना ही जान पाई कि भरा पूरा परिवार है, कहाँ है? कौन है? यह जानना शायद शीघ्रता करना था। रफ़ीक मुसलमान था, अल्लाह का नेक बंदा। इतना जान लेना ही बनता था। धर्म की दीवारें इतनी नीची न थी कि उस और झाँक पाना सहज हो पाता। पिछली बार उससे मिली तो कुछ क्लांत दिखा था। हँसी वही थी, स्वर बदल गए थे।

कारण मेरी समझ में नहीं आया, न मैंने समझना ही चाहा। आज पूरे 3 वर्षों बाद रीवगंज पहुँचकर निगाहें रफ़ीक को ढूँढ रही थीं। उसकी बातों के लिए कान ठहर-से गए थे, मगर वह कहीं न था। मोहन चाय की ट्रे लेकर आया तो रहा न गया और रफ़ीक के विषय में उससे पूछ लिया। क्षण मात्र को उसके चेहरे पर घृणा और तिरस्कार की कालिमा फैल गई। जिह्वा तिक्त हो गई मानो कुछ कड़वा निगल लिया हो? जाते-जाते कहता गया-" मर गया मैडम जी! मर गया साला। पिछले साल हुए आतंकवादी हमले में उसका बड़ा हाथ था। पुलिस ने उसे पकड़ लिया था। पुलिस चाहती थी अपना अपराध वह मान ले। खूब मारा-पीटा गया लेकिन ऐसी कठिन जान कि टस से मस न हुआ। बस फिर तो कोई रास्ता ही न बचा उसे मार देने के सिवाय।" एक ज़ोर की आवाज़ हुई और दूर कहीं बादल ज़मीन पर आ गिरे थे। उन्हें थामने वाले हाथ जो अब नहीं थे। सच की तस्वीर बदल गई थी। अनगिनत सच काले रंगों में रंग दिए गए थे। होठ इतना ही कह पाए- रफ़ीक ऐसा नहीं था।


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