अखरोट
अखरोट
हर साल की तरह इस साल भी ठंड के छींटे अक्टूबर में ही पड़ने शुरू हो गए थे। रज़ाई के कोनों की खींचतान अब धीर-धीरे ज़ोर पकड़ने वाली थी, मूँगफली और गुड़ की सोंधी महक घर के आंगन मे चार-पाँच महीनों के लिए बस जाने को थी। नहाने की आफ़त कभी खत्म न होने वाली कहानी की तरह लंबी चलने वाली थी। मतलब कुल मिलाकर मिली-जुली मनमानी का मौसम शुरू हो रहा था। मम्मी का कसीदे वाली नई लाल शाॅल का जाना-पहचाना शौक इस साल भी ठंड की पहली कंपकंपी के साथ ही उगने लगा था। जाना-पहचाना इसलिए कि इस साल रंग बदलकर सुर्ख लाल हो गया था, पिछले साल यह चंपई था तो उसके पिछले किसी ठहरी हुई झील का शांत-सा आसमानी। पापा ने उनके शौक को हमेशा ही इज़्ज़त दी थी, इस बार भी वही हुआ, काॅलेज जाते हुए कह गए कि शाॅल वाले को भेज दूँगा, पसंद कर ले लेना। दरअसल इन दिनों पापा के काॅलेज में दोपहर के खाने के ब्रेक में एक कश्मीरी शाॅल वाला आया करता था जिससे लगभग काॅलेज के पूरे स्टाफ़ ने शाॅल की खरीदारी की थी।उसी को भेजने की बात कह पापा ने मम्मी को भरोसे से बाँधा था।
दोपहर के ठीक साढ़ तीन बजे दरवाज़़े की घंटी बज उठी। इस समय तो भगवान भी आ जाएँ मम्मी अपनी दोपहर की नींद अर्पित करने वालों में कदाचित् न थीं किंतु आज तो शाॅल वाले का इंतज़ार था, एक बार की घंटी में उठ बैठीं, दरवाज़ा खोला तो सामने सत्तर से पचहत्तर की ठहरी उम्र वाला एक बूढ़ा पीठ पर पशमीने की रंगीनियाँ उठाए लगभग झुका हुआ सा खड़ा था। मम्मी के कहने पर वह अंदर बैठक में आया , फ़र्श पर बोझ पटक वहीं बैठने को हुआ कि मम्मी ने उसकी उम्र पर रहम खाते हुए सोफ़े पर बैठने को कहा। कुछ संकोच के साथ बूढ़ा उस पर बैठ तो गया लेकिन कभी न उतार पाने वाले कर्ज़ का एक नया बोझ लिए । मैं उम्र के उस दौर में थी कि भावनाओं के बहाव को महसूसना ही शुरू किया था, यह सब कुछ मन को गहरे छू रहा था। बूढ़े ने अपनी रंगीन शाॅलों का पिटारा, मम्मी के दिए गए बिस्कुट-पानी से अपनी आत्मतृप्ति के बाद पूरा ही खोल दिया, मम्मी ने अपनी मनपसंद कसीदे वाली लाल शाॅल को देखते ही यूँ झपटा मानो यह उनकी कई जन्मों की चाहत थी जो अब पूरी हो रही थी। बूढ़े ने हौले-से मुस्करा दिया । मोल-भाव ऐसे हुआ जैसे किसी बड़ी ज़मीन की लिखा-पढ़ी हो रही हो। ख़ैर, कायदे से मम्मी को शाॅल मिल गई और उसे अलमारी के सबसे ऊपर वाली शेल्फ़ के सुपुर्द करने
के बाद की खुशी ज़ाहिर करने के सिलसिले में बूढ़े को खाना भी परोसा गया, बेचारे से न न कहा गया। अपनी अंतिम कामना की तरह उसने इसे सहज ही पूरा होने दिया। उम्र जब साथ छोड़ने लगती है तो इंसान अपनी हकीकत समझने लगता है। खाने के बाद बूढ़े ने अपने साथ लाए कपड़े के एक थैले को अपने काँपते हाथों से खोला और लगभग बीस-बाईस अखरोट हमारे सामने रख दिए। अखरोट!!! वाह!! यह तो मैं ही खाऊँगी!!! मेरे मुँह से अनायास ही निकला। मम्मी की आँखें मुझपर टिक गईं, गुस्से से भरी उन आँखों का सामना करने की हिम्मत कतई नहीं थी मुझमें।जितना चीखी, उतनी शांत भी हो गई थी मैं।बूढ़े ने मम्मी की ओर देखा, तज़ुर्बे ने सब समझ लिया था। बेचारा कुछ झिझक सा गया, मानों जज़्बात दिखाने का हक़ उसने ज़बरदस्ती ही हासिल करना चाहा हो। बस इतना कह पाया, लेने दो बेटी , यह मेरी पोती जैसी है। मम्मी के मुँह से कुछ न निकला। बूढ़ा चला गया, कुछ देर बाद सोफ़े के एक कोने में रखे हुए थैले पर अचानक मेरी नज़र रुक गई, यह तो शाॅल वाले का वही थैला था जिसमें से खींच कर अखरोट मुझे देने की कोशिश की थी उसने। मम्मी को थैला पकड़ाकर, कुछ पलों पहले की गई अपनी ग़लती को सुधार लिया था मैंने। मम्मी ने न जाने क्या सोचा कि थैले को खोलकर देखने लगीं, उसमें दो-चार अखरोट, एक मैला सा पठानी कुर्ता, पानी की एक बोतल, कुछ रुपए और तुड़ी-मुड़ी-सी दो चिट्ठियों का खज़ाना समाया हुआ था। चिट्ठी खुली ही थी, सो पढने का लालच मम्मी से टाला न गया। किसी नदीम की चिट्ठी थी, लिखा था - अब्बा मैंने आपको आश्रम पहुँचाकर जो ग़लती की है उसका पछतावा आज भी है, यकीन मानें मैंने आपकी खैरियत के मद्देनज़र यह फ़ैसला लिया था। अक्टूबर की पंद्रह तारीख को सोज़ का निकाह तय है, उसके ससुराल वाले जान चुके हैं कि वह आपकी पोती है और इस बात से भी वाकिफ़ हैं कि आपके लगाए पेड़ों के अखरोट बिना दाम दसगीर साहेब की मज़ार के आगे बँटते रहे हैं । वे आपसे मिलने को बेताब हो रहे हैं। मैं आपको लेने आ रहा हूँ। दूसरी चिट्ठी शायद बूढ़े ने लिखी थी,किसी उमर खाँ के नाम, और जिसे अब तक पोस्ट न की थी- नदीम आए तो कह देना मेरी कोई खबर नही, मैं बिना बताए ही इक रोज़ वहाँ से निकल गया। मम्मी की आँखों में आँसुओं का सैलाब दिखाई पड़ा, एक लंबी साँस खींचते हुए उन्होंने मुझसे पूछा आज कितनी तारीख है ? मैंने कहा- पंद्रह अक्टूबर।