पलामू के वीर सपूत
पलामू के वीर सपूत
नीलांबर और पीतांबर झारखंड के दो ऐसे स्वतन्त्रता सेनानी थे, जिन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ 1857 में विद्रोह का बिगुल फूंका था।इनका जन्म झारखंड राज्य के गढवा जिला के चेमो-सनया गांव में खरवार की उपजाति भोक्ता जाति में हुआ था।
इनके पिता चेमु सिंह एक जागीरदार थे, उनकी अंग्रेजों से हमेंशा ठनी रहती थी।कंपनी सरकार ने इन्हें नाम मात्र के शुल्क पर दाे जागीरें उपलब्ध करवा रखी थीं, ताकि खरवार जाति के पराक्रमी जागीदार काे शांत रखा जा सके। दुर्भाग्यवश चेमू सिंह अधिक समय तक जीवित नहीं रहे।पिता की मृत्यु के बाद बड़े भाई नीलांबर ने पीतांबर का पालन-पोषण किया।दोनों भाईयों में बहुत प्रेम था।
इधर जब 1857 के विद्रोह की चिंगारी उठी,उस समय पीताम्बर रांची में थे।वहां उन्होंने आन्दोलनकारियों के जुनून को देखा तो खुद भी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने की ठान ली।वे वापस पलामू लौटे और बड़े भाई नीलांबर को विद्रोह के विषय में बताया।नीलांबर ने खरवार, चेरो, तथा भोगता समुदाय को एकत्रित किया और अंग्रेजों के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध छेड़ दिया।ये रांची के प्रमुख क्रांतिकारी ठाकुर विश्वनाथ शाही एवं पांडेय गणपत राय से बहुत प्रभावित थे।इनके उनसे संपर्क के कारण अंग्रेज डरे रहते थे। उस समय पलामू के भोगताओं में नीलांबर और पीतांबर इन दो भाइयों की वीरता प्रसिद्ध थी।
दोनों भाई गुरिल्ला युद्ध में बड़े निपुण थे। पलामू के जंगलों में बसी भोगता, खरवार और वृजिया आदि सभी जातियां सदा से स्वतंत्र रहती आई
थीं। चेरो राजा भी इनके साथ छेड़-छाड़ नहीं करते थे चेरो राजाओं को अपना राज्य समाप्त हो जाने का बड़ा दुःख था। वे अंग्रेजों से मिलकर जागीरें पाने
और अपना रोब-दाब बढ़ाने में व्यस्त थे।
21 जनवारी को कर्नल डालटन, मैनेजर मैकडोनल और परगनाइत जगतपाल सिंह ने एक सम्मिलित सेना के साथ नीलांबर-पीतांबर को पकड़ने की योजना बनाई लेकिन वे पकड़ में नहीं आ सके। इससे कर्नल डालटन क्षुब्ध हो गया। उसने मद्रास इंफेंट्री के 140 सैनिक, रामगढ़ घुड़सवार की छाेटी टुकड़ी तथा पिठाैरिया परगणैत के नेतृत्व में कुछ बंदुकचियों के साथ 16 जनवरी 1858 काे पलामू के लिए कूच कर दिया।यह टुकड़ी 21 जनवरी काे मनिका पहुंच कर ले। ग्राहम से मिली। दूसरे ही दिन पलामू किले से विद्राेह का संचालन कर रहे नीलांबर-पीतांबर पर हमला बोल दिया गया। अंग्रेजों की सैन्य क्षमता अधिक थी, नीलांबर-पीतांबर काे पलामू किला छाेड़ना पड़ा।वे जाते हुए ताेप, भारी मात्रा में गाेला बारूद, असबाव, रसद एवं मवेशी भी छोड़ गए। इनके खिलाफ छोड़ने के बाद ले. डाल्टन काे वहां बाबू कुंवर सिंह की एक चिट्ठी मिली, जिसे उन्होंने निलांबर एवं नकलाैत मांझी के नाम लिखा था। इस पत्र में बाबू कुंवर सिंह ने इन्हें अविलंब सहयाेग करने की बात लिखी थी। इससे घबरा कर डाल्टन ने कुंवर सिंह से मदद मिले उससे पूर्व ही विद्राेहियाें काे कुचल देने की रणनीति बनायी।
कमिश्नर डाल्टन ने लेस्लीगंज में युद्ध के लिए गाेला-बारूद तथा रसद जुटाई, साथ ही क्षेत्रीय जागीरदाराें काे सैन्य सहायता उपलब्ध कराने का हुक्म दिया। बहुत सारे जागीरदारों ने आदेश का पालन किया, परंतु पलामू राजा से संबंध रखनेवाले प्रमुख चेराे जागीरदार भवानी बक्स राय ने नीलांबर-पीतांबर का समर्थन करते हुए डाल्टन का आदेश मानने से इंकार कर दिया। 10 फरवरी को घाटी के हरिनामाड़ गांव से खबर मिली कि विद्राेहियाें ने विराेधियाें पर कार्रवाई कर दी थी।इस पर डाल्टन ने ले. ग्राहम काे रामगढ़ सेना एवं देव राजा के सैनिकाें के साथ फौरन हरिनामाड़ रवाना कर दिया।
ग्राहम वहां पहुंचे उससे पूर्व ही विद्राेही वहां से निकल चुके थे, लेकिन तीन विद्राेही पकड़े गये, जिनमें दाे काे तत्काल फांसी दे दी गयी तथा एक विद्राेही काे रास्ता बताने के लिए साथ ले लिया गया। डाल्टन ने विद्राेही बंदी के सहयाेग से 13 फरवरी 1858 काे नीलांबर-पीतांबर की जन्मभूमि में प्रवेश किया। नीलांबर-पीतांबर के दल ने काेयल नदी पार करते अंग्रेजी सेना काे देख लिया। वे चेमू गांव छाेड़ कर जंगली टिलों के पीछे छिपकर वार करने लगे।इस वार में रामगढ़ सेना का एक दफादार मारा गया। यहां भी भाग्य ने साथ नहीं दिया, विद्रोही टुकड़ी को 1200 मवेशी एवं भारी मात्रा में रसद पीछे छोड़नी पड़ी, परंतु नीलांबर-पीतांबर बच निकलने में कामयाब रहे।
खिन्न हाेकर डाल्टन ने 12 फरवरी काे चेमू-सेनया स्थित नीलांबर-पीतांबर के गढ़ सहित पूरे गांव में लूट-पाट मचा दी और सभी घराें काे जला दिया। गांव वालों की संपत्ति, मवेशियाें तथा जागीराें काे जब्त कर लिया और लाेहरदगा के तरफ बढ़ा।
जनवरी 1859 में कप्तान नेशन पलामू पहुंचा। यहां उसने ग्राहम के साथ विद्राेह काे दबाना शुरू किया। ब्रिगेडियर डाेग्लाज ने भी पलामू के विद्राेहियाें के विरुद्ध मुहिम चला दी।शाहाबाद से आनेवाले विद्राेहियाें काे राेकने का काम कर्नल टर्नर काे साैंपा गया। इस कार्रवाई से पलामू के जागीरदार डर गए। उन्होंने नीलांबर-पीतांबर काे सहयाेग देना बंद कर दिया।
अंग्रेज खरवार एवं चेरवाें के बीच फूट डालने में भी कामयाब रहे। परिणाम स्वरूप नीलांबर-पीतांबर काे अपना इलाका छाेड़ना पड़ा। चेराे जाति से अलग हुए खरवार-भाेगताओं पर 08 फरवरी से 23 फरवरी तक लगातार हमले कर उनकी शक्ति को क्षीण किया गया। तभी कुछ जासूसाें से सूचना मिली कि नीलांबर-पीतांबर अपने एक संबंधी के यहां हैं। दोनों को वहां से गिरफ्तार कर लिया गया और बड़ी निर्दयतापूर्वक खुलेआम एक पेड़ के नीचे
फांसी पर लटका दिया गया।
यह घटना 28 मार्च 1859 काे लेस्लीगंज में घटी।
पलामूवासी आज भी दोनों का नाम बड़ी श्रद्धा के साथ लेते हैं। उस वृक्ष और गुफा की पूजा आज तक
लोग करते हैं, जहां पर दोनों वीर सपूतों ने दम तोड़ा था।
