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शिक्षा एक व्यापार

शिक्षा एक व्यापार

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"40 हजार रुपए जमा करवा दीजिये।"

"क्या इतनी फीस, मास्टर जी मेरी बच्ची तो अभी 5 वी क्लास में ही है।"

"यह तो पहली किस्त है केदार जी, दीपावली पर दूसरी क़िस्त भी जमा करवानी है।"

"क्या ! इतनी फीस। मास्टर जी मे तो गरीब आदमी हूं। इतनी बड़ी फीस तो नही दे सकता। मेरी बेटी बहुत होनहार है, में उसे डॉक्टर बनाना चाहता हूं।"

"देखिये, इतनी फीस तो लगेगी ही। शहर का सबसे बड़ा स्कूल है हमारा। यहां हर सुविधा मिलेगी। आप किसी प्रकार की चिंता मत कीजिये।"

"जी वो तो सही है पर मैं इस काबिल नहीं हूँ की इतनी बड़ी रकम आपको दे सकूँ।"

"केदार जी जब बड़े ख्वाब देखते हो तो पैसे तो लगते ही है। पैसे नहीं है तो फिर बच्ची को सरकारी स्कूल में दाखिल करवा दो।"

केदार जी का सपना पल भर में ही चूर हो गया। मन में सोचा की यदि सरकारी स्कूल में ईमानदारी से काम होता और सरकारी मुलाजिम अपना फर्ज सही से निभाते तो आप लोगो की यह दुकानें चलती ही नहीं। इस देश की यही तो बदकिस्मती है कि लायक पदों पर नालायक बैठ जाते है फिर नियमो को और देश के भविष्य को ताक पर रखकर खुद की जेब भरते हैं।

निशा अपने पापा के साथ बैठी सुन रही थी। नादान बच्ची ज्यादा कुछ तो नहीं समझ पाई लेकिन इतना समझ गई थी कि उसको यहाँ प्रवेश नहीं मिला। इसका कारण भी वो स्पष्ट नहीं जान पा रही थी पर पिता का मुरझाया चेहरा उसे बहुत कुछ समझा रहा था।

निशा बहुत होनहार थी। केदार जी एक कृषक थे, अपनी होनहार बेटी को डॉक्टर बनाने का सपना है लेकिन उस सपने के आड़े उसकी तंग हालात है।

निशा ने पापा का हाथ पकड़ लिया। बेमन से केदार जी उठे और स्कूल से बाहर निकले। बेटी को गले से लगाया और बोले,

"मेरी गुड़िया तू परेशान मत होना। में एक दिन जरूर तुझे डॉक्टर बनाऊंगा।"

अगली सुबह केदार जी की लाश खेत मे एक पेड़ पर लटकती मिली। निशा तो इस बात से बेखबर थी। अचानक हुए उस घटनाक्रम से वो अनभिज्ञ थी।

ना जाने केदार जी जैसे कितने ही लोग ऐसे हैं जो अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा ना देने का मलाल लेकर आत्महत्या करते हैं। और हुक़ूमत के कान पर जूं तक नहीं रेंगती।


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