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घर के पराठे

घर के पराठे

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ट्रेन के स्टेशन छोड़ने के बाद ही बच्चे कुरकुरे, नमकीन आदि के पैकेट खोलकर शुरू हो गए तो बड़े व्यक्ति समौसा या कचौड़ी जो प्लेटफार्म से खरीदे, उनके संग उंगली चाटकर झूठे ही भूख मिटाने की कोशिश कर रहे थे। लगभग सभी एक-दूसरे के भोज्य पदार्थ के स्वाद या खुशबू से अनभिज्ञ। कोई मतलब ही नहीं।

बगल के कूपे में, किसी ने घर के बने खाने का जैसे ही रुमाल खोला, पराठों और आम के अचार से रेल का डिब्बा महकने लगा।

अधिकांश लोगों की नजरें उधर घूम गईं, किसी को अपनी बहन, माँ तो किसी को पत्नी की याद आने लगी, क्योंकि आसपास बैठने वालों को देखकर लग रहा था जैसे मुँह में पानी आ गया हो। आँखों के तारे बार-बार वहीं केंद्रित हो जाते। मुझे क्षणिक विश्वास पुख्ता होने लगा कि घर का पराठा हमेशा पिज्जा पर भारी पड़ेगा।


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