मेरा पहला प्यार
मेरा पहला प्यार
ये बात सन १९७३ की है | गर्मी की छुट्टियों में, कॉलेज से अपने गाँव आया था | अचानक एक दिन, सारे परिवार का गोवर्धन परिक्रमा लगाने का कार्यक्रम बना | गोवर्धन पहुँचकर धर्मशाला में सामान रखा और परिक्रमा लगाने को तैयार हो गये | परम्परा के मुताबिक, परिक्रमा शुरू करने से पहले, मानसी गंगा में शुद्धिकरण का प्रचलन है | हम सब भी वहाँ पहुँच गये | वहाँ पर फैली गंदगी देखकर मेरा नहाने का मन नहीं हुआ और मैं मानसी गंगा के जल के छींटे मारकर पास ही बैठ गया | मुझसे थोड़ी ही दूरी पर एक भोली सी, प्यारी सी, हमउम्र लड़की भी बैठी थी | शायद मेरी तरह ही, उसे भी वहाँ शुद्धिकरण करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी और वह अपने परिवार के सामान की रखवाली कर रही थी | मैंने जैसे ही उसकी तरफ देखा, ना जाने क्यों लेकिन अच्छी लगी | ऐसा आभास हुआ जैसे किसी ने दिल के दरवाजे पर दस्तक दी | वो भी मुझे देख रही थी | उसके बाद करीब २० मिनिट तक, हम दोनों एक दूसरे को, कभी छिपकर और कभी खुलकर, बस देखते रहे | मन तो चाह रहा था कि मैं उससे बात करूँ | परंतु उन दिनों, वो भी किसी धार्मिक स्थल पर, एक अनजान लड़की से खुलेआम बातचीत करना, सोच से भी परे था | शायद हम दोनों ही एक दूसरे को, आँखों से ही पढ़ने और समझने की कोशिश कर रहे थे | उस लड़की की सादगी मन को भा गयी थी | परिवार के नहाने धोने के बाद, ना जाने वो अपने परिवार के साथ कहाँ चली गयी | गोवर्धन में बिताये अगले १२ घंटे, हमारी आँखें हर पल उसको ढूंढती रही, लेकिन वो मेरी यादों में बसकर, खुद जाने कहाँ खो गयी |
सन १९७४, मैं भरतपुर में, मालगाड़ी के डिब्बे बनाने वाले कारखाने में ट्रेनिंग कर रहा था | वहीं से एक दिन अपने कॉलेज के एक मित्र के साथ फ़तेहपुर सीकरी घूमने चले गये | वहाँ पर पहले बुलंद दरवाजा और फिर शेख सलीम चिश्ती की दरगाह देखी | आसपास और भी कई जगह देखी | जब हम खाने पीने के लिए कोई जगह ढूंढ रहे थे, तभी हमारी नज़र एक बेहद खूबसूरत मुस्लिम लड़की पर पड़ी | खुदा का शुक्र था, उस वक़्त उस लड़की का चेहरा बुर्के की क़ैद से बाहर था | वो अपनी कुछ सहेलियों के साथ, बुलंद दरवाजे के अंदर बनी दुकानों से कुछ खरीद रही थी | उसके हाव भाव और लिबास को देखकर लगता था, जैसे पढ़ी लिखी और किसी समृद्ध परिवार से ताल्लुक रखती थी | बला की खूबसूरती के साथ, उसका अपना हर अंदाज़ भी निराला और उतना ही दिलकश था |
उसी पल हमारी नज़रें तो जैसे, उस चेहरे पर अटक गई
खाना पीना भूलकर एक हसीना के चक्कर में भटक गई
उन साहिबा ने भी, हमें उनको देखते हुए, देख लिया था | और फिर ना जाने उसे क्या सूझी, हमारी तरफ देखकर हल्के से मुस्करा दी | हाय, हम तो बस वहीं ढेर हो गये | हमारे पास उस मुस्कराहट का मुस्कराहट से जवाब देने के अलावा, और कोई चारा नहीं बचा था | वो साहिबा जहां जहां भी गयी, हम दोनों खाली रिक्शे की तरह उसका पीछा करते रहे | उस लड़की का बेफिक्र अंदाज़, मस्तानी चाल और अदाओं में अल्हड्पन था | वो खुलकर हँसती थी | ये सब करीब एक से डेढ़ घंटे तक चला | वो आगे आगे और हम पीछे पीछे, और कभी हम जानबूझकर आगे निकल जाते, खुलकर उनका दीदार करने के लिये | और तब तक उन्हें देखते रहते, जब तक वो हमसे आगे नहीं निकल जाती | ये सब करते हम वापिस बुलंद दरवाजे तक पहुँच गए थे | बुरा हो उस काले बुर्के का, जिसने बुलंद दरवाजे से बाहर निकलने से पहले ही, उस हसीन चेहरे को एक बार फिर क़ैद कर लिया | और वो काले बुर्के में क़ैद हसीना, साथ वाले बाकी काले बुर्कों में, ना जाने कहाँ खो गयी | हमने लाख कोशिशें की, लेकिन हमारे जहन में एक हसीन याद छोड़, वो जाने कहाँ गुम हो गयी |
सन १९७७, मैं बम्बई में DMET में पढ़ाई कर रहा था | IIT बम्बई के सांस्कृतिक कार्यक्रम में, DMET की तरफ से कव्वाली गाने का मौका मिला | कव्वाली का कार्यक्रम जबरदस्त रहा था | उसके बाद हम भी दर्शकों संग आकर बैठ गये | हमारे बगल वाली सीट पर एक लंबी सी लड़की आकर बैठी | उस माहौल में शायद हमारा ध्यान भी नहीं जाता अगर उसने खुद ही हमसे ना पूछा होता “अभी कव्वाली आप ही गा रहे थे ना” | और फिर बातचीत का दौर चल पड़ा | करीब एक घंटे तक हम उस लड़की से बात करते रहे | वो लड़की बम्बई के किसी अच्छे कॉलेज से PG कर रही थी और यहाँ अपने कॉलेज का प्रतिनिधित्व करने आई थी | उससे बात करना बहुत अच्छा लग रहा था | जब हमने उसका टेलीफोन नंबर मांगा, तो अपना नंबर देने की बजाय, हमारा नंबर ले लिया | और साथ ही मुलाकात का वादा भी किया | खैर, हम इंतज़ार करते रहे, मगर मुलाकात तो दूर, फोन भी नहीं आया | बात खत्म हो गयी |
सन १९७९, मैं ननकोरी नाम के यात्री जहाज पर जूनियर इंजीनियर था | जहाज को वार्षिक मरम्मत के लिए सिंगापुर भेजा गया | उस यात्रा के दौरान एक बोहरा मुस्लिम लड़की मन को भा गयी | मद्रास से सिंगापुर करीब ४ दिन का सफर था | उस लड़की से हर शाम डेक पर मुलाकात होती थी | दोनों घंटों बातें करते रहते थे | यहाँ तक कि, सिंगापुर पहुँचने के बाद भी मुलाक़ातों का सिलसिला जारी रहा | लेकिन वो किस्सा भी दिल में कहीं दबकर रह गया |
आज जब ये सारे किस्से याद करने और लिखने बैठा हूँ तो सोचने पर मजबूर हो गया हूँ | इन सबको क्या नाम दूँ ? क्या ये सभी महज एक शुरुआती आकर्षण थे ? शायद नहीं या फिर शायद हाँ | सभी किस्सों में एक शुरुआत तो हुई थी लेकिन बात आगे नहीं बढ़ी | अगर कहीं कोई इकरार नहीं हुआ, तो इंकार भी नहीं हुआ | चाहे आँखों ही आँखों में या फिर थोड़ी सी बातचीत, एक दूसरे को जानने की कोशिश तो हुई | ये बात सही है कि प्यार परवान नहीं चढ़ा लेकिन किसी ने दिल के दरवाजे पर दस्तक तो दी थी | मैं इन किस्सों को मोहब्बत, इश्क़, प्यार, आकर्षण या फिर लगाव जैसा कोई भी नाम नहीं देना चाहता | बस कुछ अनमोल मीठी यादें मानकर, अपने दिल में आज भी सँजोये रखना चाहता हूँ |
२ फरवरी १९८० को मेरी शादी हो गयी | शादी से पहले, मैं और मंजु, हम दोनों ही एक दूसरे को नहीं जानते थे | हम दोनों एक ही कस्बे में रहते थे लेकिन कभी भी हमारा आमना सामना नहीं हुआ | हाँ, शादी तय होने की प्रक्रिया के अंतर्गत, हम एक बार जरूर मिले थे | हमारी शादी माता पिता द्वारा तय की गयी थी | शादी के बाद, हम करीब दो हफ्ते साथ रहे | उसी दौरान हम दोनों ने एक दूसरे को जाना और समझा | इसी बीच, एक हफ्ते के लिये हनीमून पर मंसूरी भी चले गए थे | उसके बाद मंजु अपनी M.A. पूरी करने वनस्थली चली गयी और मैं अपनी जहाज की नौकरी ज्वाइन करने मद्रास चला गया | शुरू के कुछ दिन तो गुजर गए लेकिन धीरे धीरे मंजु की याद आने लगी | उन दिनों टेलीफोन की सेवाएँ ज्यादा अच्छी नहीं थी | पत्रों के जरिये ही खबरें और भावनाओं का आदान प्रदान होता था | जहाज की नौकरी के कारण पत्र भी हफ्तों बाद मिलते थे | कई बार तो ठीक से सो भी नहीं पाता था | दिल और दिमाग पर हर वक़्त मंजु हावी रहती थी | उसकी हर छोटी से छोटी बात याद आती थी | ऐसा लगता था जैसे उसे कोई भी तकलीफ ना हो | उसकी परेशानी के बारे में सोचकर ही, मैं परेशान हो जाता था | उसकी मुस्कराहट मुझे खुशी देती थी |
उन दिनों, मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि कौन क्या सोचेगा, कोई क्या समझेगा या फिर कौन क्या कहेगा ? बस हर पल उसकी चिंता रहती थी, उसका खयाल रहता था | उसे हर बुरी नज़र से बचाने के लिए कुछ भी कर सकता था | मैं मंजु के बारे में सोचता रहता था, मैं उसके बारे में महसूस करता था | अगर उसे कोई मुश्किल होती तो मैं उसके समाधान के तरीके सोचता रहता था | आज भी याद है २७ जून १९८०, मंजु अपनी M.A. Final की आखिरी परीक्षा देकर मद्रास आ रही थी | मुझे मालूम था कि ट्रेन रात साढ़े बारह बजे पहुंचेगी | फिर भी मैं रात १० बजे ही स्टेशन पहुँच गया और ढाई घंटे उसका इंतज़ार किया |
उस वक़्त लगने लगा था, जैसे मुझे प्यार हो गया था | प्यार का एहसास, शादी के १५ दिन बाद तक भी नहीं हुआ था | लेकिन उसके बाद जब हम दूर दूर रहे, तब धीरे धीरे इसका एहसास हुआ | और फिर हर दिन ये परवान चढ़ता गया | ईश्वर की असीम कृपा है, मेरा पहला प्यार ही मेरा इकलौता प्यार है |
जीवन में कितने ही उतार चढ़ाव आये और चले गये
एक दूसरे के लिये हमारा प्यार आज भी बरकरार है