" आत्मप्रवंचना "
" आत्मप्रवंचना "
जीवन चरित्र एकांगी, जीवनवृत एकाकी
संपूर्णता भ्रम, जीवन खंड खंड,
जिजीविषा प्रबल, प्रयास निर्बल
मोहासिक्त मन ,रचे कल्पना अनेक,
अहम से भरा, वहम में पगा
स्वंयभू बोधिसत्व, अल्पज्ञ मानस,
समझे धरा मुट्ठी में, अहं ब्रहास्मि
तुच्छ संसार मैं अपरंपार,
आया काल, संपूर्ण निराधार
चित्त अशांत, चिर निद्रा लीन,
कालखंड में खंड खंड हो गया
झूठी माया, झूठा लोभ,
मिथ्याभिमान, धूल धूसरित
अनेक जन्म, सतत अनवरत,
वही कथानक, बारंबार पुनरागमन
मिथ्याचारी,अभिमानी, आत्मप्रवंचक मानुष।।